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3 मई 2019, इसी दिन उड़ीसा में साइक्लोन फनी आया था। भुवनेश्वर में जहाँ हम थे वहाँ 150 किमी/घंटा की रफ्तार से हवा चली थी, पुरी और गंजम जिले के तटीय इलाकों में तो हवा की रफ्तार 200 किमी/घंटा के आसपास थी। ये तस्वीर तूफान के ठीक एक दिन बाद भुवनेश्वर रेल्वे स्टेशन की है। पूरे प्लेटफॉर्म में एक भी पंखे की पत्तियाँ नहीं बची थी, तस्वीर में आप देख सकते हैं कि फनी ने प्लेटफॉर्म में लगे लोहे की छत तक को भी नहीं छोड़ा, ये 150 किमी/घंटे की बात बता रहा हूं, 200 किमी/घंटे से जहाँ हवा चली होगी, वहाँ क्या हाल हुआ होगा, आप अंदाजा लगा सकते हैं।
साइक्लोन आने के 48 घंटे पहले वैसे तो हमें प्रशासन की ओर से नोटिस मिल गया था कि भुवनेश्वर के स्थानीय लोगों को छोड़ अन्य बाहर के लोग अपने-अपने घरों को चले जाएं। बाध्यता नहीं थी, बस कहा गया कि बेहतर हो कि असुविधा से बचने के लिए अपने घर चले जाएं। अधिकांशतः चले भी गये, हम रूक गये, बस यह सोचकर कि इतने लोग तो हैं, हम भी रूक जाते हैं। उन 48 घंटों में मोबाइल दुकानों में पाॅवरबैंक लेने के लिए भयंकर भीड़ लगी थी, ये छोटी-छोटी चीजें इसलिए बता रहा हूं क्योंकि साइक्लोन के दिन से ही हम सबका फोन डेड हो चुका था।
जिस दिन तूफान आया उस दिन तो हम हवा की गति का आनंद लेते रहे, पेड़ों को टूटता देखते रहे, गिरे हुए नारियल और आम खाकर हमने जैसे तैसे दिन काट लिया, चूंकि उस दिन तूफान के साथ बारिश भी हुई थी तो गर्मी का पता भी नहीं चला। जितना पानी हमने स्टोर करके रखा था, रात तक खत्म होने की स्थिति में आ चुका था। हमारी असली परीक्षा तो अगले दिन सुबह होनी थी। सुबह उठते ही हमने जो भयावह मंजर देखा, भुवनेश्वर में चूंकि पेड़-पौधे बहुत हैं तो चारों ओर पेड़ ही पेड़ गिरे थे, कुछ-कुछ जगह सड़क तो दिख ही नहीं रही थी, ये हाल था, जगह-जगह रोड ब्लाॅक। बिजली तो एक दिन पहले से नहीं थी, और आगे भी कुछ दिनों तक बिजली आएगी, इसके आसार कम ही दिख रहे थे। बताता चलूं कि भुवनेश्वर जो कि राजधानी है, वहाँ बिजली बहाल होने में पूरे 10 दिन लगे थे। बाकी तटवर्ती इलाकों का अंदाजा लगा लिया जाए।
4 मई को हम सुबह से पानी की तलाश में निकल गये। कहते हैं कि बिना खाने के इंसान महीने भर जीवित रह सकता है और बिना पानी पिए इंसान फलां दिन जीवित रहता है, लेकिन हमारे साथ एक अलग ही समस्या थी वो यह कि बिना टायलेट किए इंसान कितने समय तक खुद को कंट्रोल कर सकता है, है ना अजीब। हमने भी कभी नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ कभी देखना पड़ेगा। आपदा के समय कई ऐसी चीजें हो जाती है जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सुबह 8 बजे की बात होगी, हमने आसपास के सारे सुलभ शौचालय नाप लिए, सब तालाबंद, कहीं भी एक बूंद पानी नहीं। नजदीक कहीं तालाब मिल जाए, इसका पता लगाया तो पता चला कि 12 किलोमीटर दूर एक तालाब है जो कि जलकुंभी से लदा हुआ है। आप यह सब पढ़ते हुए तरह तरह के ख्याल दिमाग में ला सकते हैं कि इस तरीके से मैनेज कर लेते, ऐसे पानी इकट्ठा कर लेते, फलाना ढिमकाना, ये वो, लेकिन वो समय ऐसा रहता है, कोई भी हो, प्रकृति जब कड़ी परीक्षा लेती है, तो अच्छे अच्छे निपट जाते हैं। तो फिर पानी की बोतलों से लैस भटकते हुए हमें एक किसी ने बताया कि पास के एक मंदिर के नल में पानी आ रहा, हमने तुरंत वहाँ से सारे बोतलों में पानी भरा, और वापस अपने घर आए। हमने उन बोतलों का पानी पीने के लिए इस्तेमाल किया या फिर टायलेट में, इतनी गहराई में नहीं जाते हैं, बस यह समझिए कि आपदा के समय बुध्दि उल्टी हो जाती है।
उस दिन खूब गर्मी पड़ रही थी, जैसे-तैसे हमने दोपहर को कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त कर लिया। अब सब अपने-अपने घरों को जाने की फिराक में थे, किसी को होश नहीं रहा कि किसके जेब में कितने पैसे हैं, क्योंकि हममें से अधिकांश लोग कभी कैश नहीं रखने वालों में से थे, पेटीएम,गूगल पे से ही जो काम चल जाता था। मतलब अजीब आपाधापी मची हुई थी, सुलभ की तलाश में भटकने के बाद बस स्टेशन भी गये, पता चला कि जहाँ मुझे जाना है, उस रूट में फिलहाल कोई बस नहीं चल रही है। यह सब इसलिए बता रहा हूं कि मेरी बाइक का पेट्रोल भी खत्म हो रहा था, मैंने यह फैसला किया कि जैसे-तैसे बाइक से ही अकेले भुवनेश्वर से रायपुर चला जाऊंगा, और मैंने आनन-फानन में 400 रूपए का पेट्रोल यह सोचकर डलवा लिया कि आगे तो एटीएम मिल जाएगा, उधर ही पैसे निकाल लूंगा। बताता चलूं कि भुवनेश्वर में बिजली एक दिन पहले जा चुकी थी तो सारे एटीएम ठप हो चुके थे। पानी की बोतलें महंगी हो गई थी, खाने-पीने की वस्तुएँ भी दुगुने दाम में मिलने लगी थी।
स्थिति ऐसी थी अपने भाई जैसे दोस्तों के साथ छोटी-छोटी बातों को लेकर बहस तक होने लग गई। एक-दूसरे से चिढ़ने लगे थे, बुरा भी लगता था लेकिन समझ भी नहीं आ रहा था कि कैसे ही बर्ताव किया जाए। ये साइक्लोन का असली आॅफ्टर इफैक्ट था, हम पशोपेश में थे। पगला गये थे हम।
मैंने अपना बैगपैक टाँगा और निकल गया बाइक में। भुवनेश्वर से कटक तक भी जा नहीं पाया, 20 किलोमीटर तक चलाने के बाद रोड की हालत देखकर मैं समझ गया था कि अब मैं रोड से नहीं जा पाऊंगा, जगह-जगह इतने पेड़ गिरे थे कि संभव ही नहीं था कि बाहर निकल पाऊं एक तो दोपहर के दो बज चुके थे, रास्ते में सिमलीपाल का पूरा जंगल पार करना था, दूर-दूर तक कोई इंसानी बसाहट भी नहीं। यह सब सोचते हुए मैं वापस लौट आया। कमरे में बैठे मेरे दोस्त मुझे देखकर और पागल हो गये। चूंकि वे सभी उड़ीसा के ही थे इसलिए उन्हें अपने गंतव्य तक जाने के लिए रात की बस मिल चुकी थी। वे इंतजार कर रहे थे। अब मेरे पास दो रास्ते थे, पहला ये कि या तो अकेले रूक जाता, या फिर दूसरा ये कि उसी दिन ट्रेन से निकल जाता। बताता चलूं कि उस रूट की सारी ट्रेनें पहले ही रद्द हो चुकी थी।
पता चला कि रायपुर के लिए जो इंटरसिटी जाती है वह किसी दूसरे ट्रेन नंबर और नाम से चल रही है, वह आज ही रात को जाएगी लेकिन आधे दूर तक ही जाएगी। मैं इस आस में स्टेशन चला गया कि कम से कम यहाँ से बाहर तो निकल जाऊंगा। स्टेशन पहुंचा तो देखा कि कुछ पहचान में ही नहीं आ रहा था, पूरा सब तहस नहस हो चुका था। उस वक्त मेरे पास पानी की बोतल के अलावा कुछ भी नहीं था, न ही पैसा, ना ही खाना, मेरा सारा पैसा तो पहले ही पेट्रोल में चला गया था। आप चाहें तो इस मूर्खता के लिए खूब सारा ज्ञान, प्रवचन दे सकते हैं या मनचाहे गरिया सकते हैं या फिर अप्रत्यक्ष तरीके से शब्दजाल बुनकर अपमानित भी कर सकते हैं, लेकिन उस समय को याद करता हूं तो समझ ही नहीं आता है कि ऐसी भूल हम कैसे कर लेते हैं, प्रकृति के प्रकोप के सामने हम कितने बौने हैं, हमारी सारी बुध्दि, क्षमता, चेतना ये सब ऐसे समय में कहाँ चली जाती है।
मैं स्टेशन शाम को चार बजे पहुंचा था, अब चूंकि पैसे नहीं थे तो बाकी लोगों की तरह मैं भी जनरल बोगी में बैठा था, जो ट्रेन रात को 8 बजे चलने वाली थी, वह अगले दिन सुबह छ:ह बजे चली। तब तक मैं अपनी सीट में पड़ा रहा, एक तो इतने पेड़ तहस-नहस हो चुके थे तो गर्मी और उमस इतनी कि सो भी नहीं पाया, भूख भी नींद न आने की एक बड़ी वजह थी। ट्रेन पहले ही 9 घंटे लेट हो चुकी थी। अब चूंकि बिजली नहीं थी, इसलिए आगे के स्टेशन से सिग्नल तो मिलने से रहा, यूं समझिए कि आटोमैक्टिक मोड में नहीं चल सकता था तो जैसे हम गाड़ी चलाते हैं वैसे ही उस ट्रेन को मैन्यूइल मोड में चलाया जा रहा था, यकीन मानिए ट्रेन की गति साइकिल जैसी थी। ट्रेन ने अंगुल तक की 100 किलोमीटर की दूरी को तय करने में ही 8-9 घंटे लगा दिए, जिसे सामान्य दिनों में 2 घंटे लगते हैं। यह ट्रेन जो रायपुर होते हुए दुर्ग तक की दूरी तय करती थी, उस ट्रेन ने उस दिन सिर्फ संबलपुर तक का ही सफर तय किया। ट्रेन संबलपुर रात के 9 बजे पहुंची। पहले तो मैंने स्टेशन में स्नान किया फिर खाना खाया। खाना खाने के लिए जैसे ही बैठा, भावशून्य होकर एक मिनट तक खाने को देखता रहा, फिर खाया। लगभग 30 घंटे के बाद जो खाना नसीब हुआ था। उस दिन तो चेहरा ऐसा हो गया था कि अपना ही चेहरा देखकर डर सा लग जाए कि यह कौन है। खैर.. वहाँ से मैंने रात को बस पकड़ ली और अगले दिन सुबह सकुशल अपने घर पहुँच गया। अगले दिन घर पहुँच कर बैग से जब गंदे कपड़े निकाल रहा था तो एक पेंट से 350 रूपए निकले, उन पैसों को उस समय देखकर बस मुस्कुरा ही सकता था, 30 घंटे की वो भूख, वो बैचेनी, वो अजीब किस्म की बेहोशी, कैसे भी करके वो घर पहुँच जाने के उस पागलपन को फनी साइक्लोन ने मानों चारों खाने चित्त कर दिया था।
यह सब लिखकर बताने का थोड़ा भी मन नहीं था, बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि इस सामान्य सी आपबीती से भी कहीं बहुत अधिक कष्ट में लोग खप जाते हैं, गुमनामी के साए में दफन हो जाते हैं, कहानी तक नहीं बन पाते हैं, नाम तक नहीं आता है, डेटा तक नहीं बन पाते हैं। तो बताने की वजह बस यह सोचिए कि इसलिए बता रहा हूं ताकि इसी बहाने कोरोना वायरस की विभीषिका को समझने का एक प्रयास किया जाए। मानता हूं कि यह अलग ही तरह की समस्या है, लेकिन कुछ चीजें हैं जिन्हें देखा जा सकता है, समझने की ईमानदार कोशिश की जा सकती है, जैसे जो लोग घर वापस लौट रहे हैं, उनमें सबसे बड़ी बात ये कि वे भी हमारी आपकी तरह इंसान हैं, उन्हें पहले हम इंसान तो समझें, फिर वर्गीकरण बाद में कर लेंगे कि वे कौन हैं, क्या हैं। जो पैदल लौट रहे हैं वो सिर्फ शरीर से नहीं थके हैं, वे मन से भी थक चुके हैं, टूट चुके हैं। ऐसे समय में उनसे हम यह सवाल कैसे कर सकते हैं कि कि पटरी में ही क्यों सोया, थोड़ा साइड में सो लेता तो जान बच जाती। समय की विभीषिका को समझिए। बार-बार उन्हें अनपढ़, मूर्ख, अनुशासनहीन कहकर उन्हें कोरोना के लिए जिम्मेदार बनाने वाली लाॅबी से बस इतना ही कहना है कि कभी तो अपने एजेंडे को किनारे कर लीजिए, पता है आप नहीं कर पाएँगे, आपकी तथाकथित संवेदनशीलता का भी क्लास है, एक वर्ग है, श्रम का अपमान करना तो वैसे भी आपके डीएनए में है। नीच, बेशर्मों की तरह ही पूरा जीवन जीना है तो फिर आपसे उम्मीद ही क्या की जाए। सनद रहे कि कोरोना फैलाने के लिए उनसे कहीं ज्यादा जिम्मेदार आप हैं और रहेंगे। युध्दबंदी या किसी दास या गुलाम की तरह ट्रक में बंधी रस्सियों के सहारे खड़े होकर हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए लोगों में कैसे भाव उमड़ रहे होंगे, क्या कुछ वे झेल रहे होंगे, कैसी उनकी मनोस्थिति होगी, ये सब कुछ शायद न्यूज आर्टिकल और टीवी चैनल से नहीं समझ आएगा। जो पीड़ित लोग आज घर लौट रहे हैं उनमें कितना अधिक अविश्वास घर कर गया है इसकी आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए अगर संवेदनशीलता भीतर नहीं है तो चुप भी रहा जा सकता है, बार-बार बोलकर, नामकरण कर, वर्गीकरण कर अपने ही लोगों का तिरस्कार करना बंद कर दीजिए, अपने भीतर के संक्रमणकर्ता को संभालिए और कहिए कि कुछ दिन आराम कर ले।
Akhilesh Pradhan
Traveler, Social thinker