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जब हम इस प्रकार के दावे करते है कि दुनिया का सारा विज्ञान वेदों से निकला है तो एक प्रश्न पूछते चलते बनता है कि हमारे द्वारा दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओं में ऐसी कौन सी वस्तुएं है जिनका आविष्कार भारत में हुआ हो। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी प्रयोग किए जाने वाली ऐसी वस्तुओं के नाम की लिस्ट बना सकते है।
दूसरा प्रश्न यह कि वैज्ञानिक चेतना और जिन वस्तुओं की खोज विज्ञान के माध्यम से हुई है उनका प्रयोग करना आना भी क्या वैज्ञानिक चेतना माना जाए या फिर उस वस्तु की कॉपी करने से लेकर प्रयोग करने तक केवल कुछ तकनीकी प्रशिक्षण और जानकारी की आवश्यकता भर होती है और उस प्रशिक्षण, जानकारी को प्राप्त कर लेने के बाद भी व्यक्ति भले ही विज्ञान का प्रोफेसर हो, कोई इंजीनियर हो, या किसी वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र में नौकरी करता हो उस व्यक्ति का मस्तिष्क वैज्ञानिक चेतना, अनुसंधानों के प्रति पंगु भी रह सकता है?
मानवीय समाज में भय को जीने उसके आधार पर रची गई कल्पनाओं, मुक्ति आदि के उपायों को रचता रहा है और उन्हें भी जीवन का हिस्सा बनाकर जीता रहा है। शुरुआत में यह भय जंगल में लगी आग को न समझ पाने से ले कर बारिश और आसमान में कड़कती बिजली को न समझ पाने के रहे होंगे। समय के साथ लेकिन धार्मिक और राज सत्ताओं ने दैवीय डरो को जिया और इनसे मुक्ति के लिए कल्पना जनित उपायों का सहारा लिया। यह शोध का विषय हो सकता है कि कुछ एक वर्ग ने क्या केवल अपने लाभ के लिए इन सब भय के आधार पर कहानियाँ गढ़ी और समाज को उनके लिए अनुकूलित किया या फिर स्वयं समाज में इनके आधार पर नई नई कल्पनाएँ स्वरूप लेती चली गई।
स्कूल में विज्ञान की शिक्षा किस प्रकार हो उससे पहले हमारी विज्ञान से दूरी या निकटता किस प्रकार बनी रही है या हमारे वैज्ञानिक रूप से चेतन/अचेतन होने के क्या कारण रहे है उनमें से कुछ कारकों पर भी नजर डाल लेते है और वे कारक किस प्रकार व्यक्ति में वैज्ञानिक चेतना का विकास होने देते है या नहीं होने देते है, इस पर कुछ विचार करते है। कई जगह मैं अपना व्यू भी रखता चलूँगा लेकिन उसमें जरूरी नहीं है कि आप भी उस व्यू पर सहमत रहें।
पहला किस्सा – धार्मिक अनुकूलता/कंडीशनिंग
बहुत लोगों के घर में पूजा पाठ होता ही रहता है, एक व्यक्ति संस्कृत भाषा के कुछ शब्द पढ़ते है जिन्हे मंत्र मान लिया जाता है और ऐसा कहा जाता है है कि इनमें बहुत शक्ति होती रही है इस प्रश्न पर विचार अभी छोड़े देते है कि तालु और जुबान के प्रयोग से क्या ध्वनि की कोई ऐसी कोडिंग संभव है जिससे ध्वनि में कोई विशेष प्रकार की क्षमता आ जाती हो और वह सामने वाले व्यक्ति को भस्म से ले कर अमर, धन धान्य, पुत्र प्राप्ति से लेकर संसार में कोई भी मनचाही वस्तु प्राप्त करा देता हो, खैर!
पूजा पाठ वाली बात से तात्पर्य था कि पंडित जी बैठते है और उनके अनुसार नौ ग्रह होते है – सूर्य, चंद्रमा, बुद्ध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहू और केतु। पृथ्वी को ग्रह नहीं माना गया, जिस सूर्य के कारण ही सौरमंडल है उसे ग्रह माना गया। आदमी की कुंडली बननी शुरू हुई, घर बैठे बैठे ग्रहों की चाल का बदलना, ग्रहों का कुंडली में विराजना, उनके दोष दूर करना, मिन्नते मांगना, शादी ब्याह से लेकर सास ससुर को खुश करना सब घर बैठे जैसे मर्जी इन्हे घुमवा देने की सुविधा से चलता रहा। नहाने धोने, कौन से रंग के कपड़े बनने है क्या खाना है क्या नहीं खाना है, गर्भधारण से लेकर बच्चा पैदा करने का समय सिजेरियन ऑपरेशन द्वारा निश्चित करने तक इन्हीं ग्रह दशा के हिसाब से लोग करते रहे है।
अछूत जातियों में पैदा हुए लोगों पर ग्रहों ने लंबे समय तक मतलब कि जातिवाद की शुरुआत से लेकर 1950 तक कोई प्रभाव नहीं डाला भले ही वह नक्षत्रों और ग्रहों के हिसाब से किसी राजा राजकुमार की तरह एक जैसे ही योग में पैदा होते रहे हो। खूब ठोक पीट कर 16 गुणों के लड़के लड़कियों की कुंडली के मिलान होकर शादियाँ रचाई जाती रही है, उसके बाद भी परिवारों में झूठ, फरेब, ढोंग, शारीरिक शोषण से लेकर मानसिक/भावनात्मक दोहन ही मुख्यत: होता रहता है, मातृ-पितृ भक्त समाज में करोड़ों भ्रूण हत्याएं हर वर्ष होती है। पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा में कई-कई पुत्रियाँ पैदा हो जाती है।
कुछ और किस्से जो समाज में व्याप्त है उन्हें भी देखते है –
1- सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण के लिए राहू-केतु की कहानी प्रचलित रही है (संदर्भ- स्कन्द पुराण, विष्णु पुराण)
2- किसी व्यक्ति की कटी गर्दन के स्थान पर हाथी की गर्दन लगाई जा सकती है।
मंत्र, यज्ञ, खीर, आदि से पुत्र प्राप्ति, यहाँ तक की पसीने से मछली को भी गर्भ धारण कराया जा सकता है। ( संदर्भ- रामायण महाभारत)
3- व्यक्ति हवा में उड़ता है, सूर्य को फल समझ कर मुंह में रख लेता है, इच्छानुसार शरीर छोटा बड़ा कर लेता है।
4- व्यक्ति मन की गति से किसी भी प्रकार की दूरियों को पल भर में नाप सकते है।
5- व्यक्ति के इशारे से पुष्पक विमान हवा में उड़ सकता है और दिशा तय कर सकता है।
6- महिला को पत्थर और पुन: पत्थर से मनुष्य बनाया जा सकता है।
7- एक व्यक्ति पूरे समुद्र को पी जाता है, देवता लोग हाथ पैर जोड़ते है तो मूत्र विसर्जन द्वारा समुद्र को वापिस भर दिया जाता है और समुद्र के पानी का खारा होने का भी यहीं कारण है।
8- गंगा नदी को तपस्या द्वारा धरती लोक में लाया जाता है और धरती पर सीधे गिरने से पाताल लोक में न चली जाए इसलिए शिव की जटाओं में गंगा को रोक कर धरती पर उतारा जाता है।
9- गंगा में नहाने से सभी पाप धुल जाते है।
इनके अतिरिक्त भी छोटे मोटे किस्से भी समाज में रचे गए और माने जाते रहे है जैसे कि किसी व्यक्ति का कई कुंटल का ढाल कवच लेकर लड़ना, घोड़े का हाथी के बराबर होना इत्यादि इत्यादि।
(ऐसी ही कई प्रकार की जादुई घटनाओं के क्रम में कई कहानियों, पात्रों, किताबों आदि के इर्द गिर्द नए तरह के सामाजिक मूल्यों को स्थापित किया गया। इन किताबों, मंत्रों आदि को इस तरह समाज में मान्यता प्रदान की गई कि स्त्रियों और अछूत जातियों को इन्हें पढ़ने सुनने और बोलने तक की अनुमति नहीं दी गई। एक से बढ़ कर एक मनोवैज्ञानिक प्रपंच इन्हें प्रायोजित करने के लिए रचे गए।)
ऊपर दिए गए तथ्यों पर विचार और आगे बढ़ाते है-
1- जिस समाज में राहु केतु शुभ अशुभ की कहानी बचपन से दी जाती रही हो क्या उस समाज में यह संभव है कि मनुष्य की वैज्ञानिक चेतना सूर्य ग्रहण से संबंधित प्रश्नों को खोजने की ओर जाए, वह पृथ्वी के सूर्य के चारों और घूमने की कल्पना भी कर पाए।
2- जिस समाज में दैवीय तरीके से मनुष्य के धड़ के साथ किसी पशु का सिर रख दिया जाता हो इतने से तर्क की संभावना को नष्ट कर दिया जाता हो कि जब लगा ही रहे थे तो जो गर्दन कटी थी वह ही गर्दन लगाई जा सकती थी। वह समाज क्या शल्य चिकित्सा के प्रयोगों, उपकरणों की खोज आदि के लिए प्रेरित होगा।
3- जिस मस्तिष्क में यह मान्यता घर कर गई हो कि व्यक्ति हवा में उड़ता है, सूर्य को निगल सकता है, क्या वह सूर्य के वास्तविक आकार, तापमान, कारणों, दूरी आदि पर विचार या अनुसंधान करने की ओर बढ़ सकता है। क्या वह व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण बल, क्षेत्र, पलायन वेग आदि के बारे में सवालों प्रयोगों आदि के बारे में बढ़ पायेगा?
4- मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु, बीमारी, शरीर का घटना बढ़ना सब में दैवीय प्रायोजन ही घुसा रखे हो, शरीर के अंगों में पाप-पुण्य घुसा रखे हो, वह क्या कोशिकाओं के निर्माण से लेकर शरीर के अंगों आदि के अध्ययन की ओर बढ़ पायेगा?
5- जब व्यक्ति पल भर में कहीं से कहीं पहुँच सकता है, सूर्य, आकाश, पाताल सोचने भर से नाप सकता है क्या इस तरह की मान्यताओं में फंसा मस्तिष्क दूरी चाल तथा समय के साधारण से दिखने वाले संबंध को भी पहचानने की ओर बढ़ सकता है?
6- ऐसे ही कपोल कल्पित पुष्पक विमान और उसके पीछे की कहानी क्या व्यक्ति को उड़ान की गतिशीलता के बारे में अनुसंधान या प्रयोग करने से रोक देती है?
7- समुद्र के खारा होने की कहानी, गंगा की शुद्धता की कहानी क्या व्यक्ति को पानी के प्रदूषण के प्रति, उसमें घुले अवयवों की खोजबीन के प्रति ले जा सकती है या यहाँ भी व्यक्ति अपने आसपास हर समय घटित हो रही प्राकृतिक घटनाओं के पैटर्न पहचाने के प्रति उदासीनता को ही जीता रहेगा।
दूसरा किस्सा- : जाति व्यवस्था
एक ऐसा समाज जिसमें जन्म के आधार पर शिक्षा का अधिकार न रहा हो, संपत्ति का अधिकार न रहा हो, तथाकथित शिक्षा, व्यापार आदि का अधिकार न रहा हो। गांवों में एक बड़ी आबादी के बदले में जमीदारों, सामंतों, व्यापारियों सत्ता संबंधित रिश्तेदारों-चाटुकारों को ही सुविधा समृद्धि प्राप्त रही है। लौहार का बेटा लौहार बनेगा, बढ़ई का बेटा बढ़ई बनेगा, साफ सफाई करने वाले की संतान सफाई ही करती रहेंगी। श्रम आधारित कार्यों को नीच कर्म के रूप में प्रायोजित किया जाता रहा हो। नीची या ऊंची जातियों में जन्म का आधार पिछले जन्मों के कर्मों से जोड़ा गया हो मतलब कि यदि आप उच्च जाति से है तो आप कितने भी वीभत्स कर्म करते रहिए दूसरे मनुष्यों का शोषण करके अपने लिए बिना उत्पादन किए या बिना श्रम किए अपने लिए ऐशों आराम के संसाधन जुटाते रह सकते है, आपकी मान मर्यादा में भी कोई असर नहीं पड़ेगा। आप उन जातियों के व्यक्तियों के लिए जिन्हे दिन-रात काम करके भी भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं है उनके लिए पत्तलों में झूठन छोड़ने की भी परंपरा बनाइए वह समाज तब भी अपने आप को उच्च जातियों की दया के प्रति कृतज्ञ ही महसूस करेगा।
ऐसा समाज जहां महिला के शरीर के रूप में जन्म लेना ही पाप योनि माना जाता हो जहां धार्मिक कन्डीशनिंग इतनी प्रबल हो कि शारीरक अंगों से लेकर, शरीर की जरूरतों तक पर धार्मिक कन्डीशनिंग का इतना जबदस्त जामा पहनाया जाता हो कि व्यक्ति स्वयं की प्राकृतिक जरूरतों के कारण अपराध बोध, आत्म घृणा को जीता हो उस समाज के स्त्री हो चाहे पुरुष दोनों ही क्या प्राकृतिक/जीवन मूल्यों के बोध के प्रति सजग या वैज्ञानिक चेतना की ओर बढ़ पायेंगे?
ऐसा समाज जहां जन्म के आधार पर ही कर्म निर्धारित हो, नियति तय हो वह समाज क्या किसी भी व्यक्ति के प्रति वास्तविकता में संवेदनशील हो पायेगा या केवल उन्हीं कुंठाओ से जन्में दया, भावुकता जैसे भावों को जियेगा।
हमारा समाज क्यों चूल्हे के नवीनतम मॉडल विकसित कर पाता है, कपड़े धोने की मशीन, मिक्सी जैसे जीवन सरल करने वाली मशीनों के बारे में नहीं सोच पाता है। बड़े बड़े घरों की स्त्रियों के जीवन का बड़ा हिस्सा दम घोंटू रसोइयों में बीत जाता है लेकिन कोई धुआँ निकासी के प्रबंधन, चिमनी आदि के बारे में भी नहीं सोच पाता है।
जाति व्यवस्था ने मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक चेतना के प्रति किस कदर कुंठित किया है यह उसकी बहुत छोटी बानगी है
जब मल मूत्र आदि की साफ सफाई के लिए दैवीय प्रायोजनों द्वारा एक जाति निर्धारित है, मानसिकता उसी काम के लिए अनुकूलित है तब वह समाज क्या किसी प्रकार के टूल को गढ़ने के बारे सोचेगा जो कूड़ा प्रबंधन आदि की ओर ले जाता हो। पालकी ढोने के लिए जाति निर्धारित रही है वह समाज क्यों साइकिल, मोटर, इंजन आदि के आविष्कार के बारे में भी सोचेगा या जरूरत महसूस करेगा।
तीसरा किस्सा – स्कूल में विज्ञान
पुनर्जागरण के समय जब यह कह देना कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता बल्कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा देती है सीधे चर्च और धार्मिक कट्टरपंथ से टक्कर लेना और मौत को दावत देना था। इस सामाजिक चेतन के आंदोलन ने जहां यूरोप को उसके मिथकीय, धार्मिक आदर्शों से निकाल कर वैज्ञानिक चेतना की ओर मोड़ा वहीं पुनर्जागरण भारत में अपना न के बराबर असर दिखा पाता है, मैं भूल रहा हूँ कि यह कथन किसका था कि जितना मुझे याद आता है कि कथन कुछ इस प्रकार था कि जब विश्व विज्ञान की रोशनी में जाग रहा था और अपने काले अध्याय से बाहर निकल रहा था तब भारत एक गहरी नींद ओढ़ कर सो गया।
अभी जिन किस्सों की ऊपर बात हुई उन्हीं किस्सों से जोड़ते हुए हमारी वैज्ञानिक शिक्षा को देखने की कोशिश करते है।
1 जब हम सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के पीछे के तथ्यों को हमारी स्कूली शिक्षा में बताया जाता है तब यह राहु केतु व ग्रहण की कहानी से जुड़े मिथकों को क्यों नहीं तोड़ पाता या यह भी हमें स्कूल में एक और कहानी की तरह ही बताया जाता है जिस पर बिना सोचे विचारे हमें विश्वास करना होता है बिल्कुल वैसे ही जैसे धार्मिक मिथकीय कहानी में विश्वास किया था। यदि चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण पर और वैज्ञानिक थ्योरी बना कर पेश कर दी जाए तो उससे क्या कोई अंतर पड़ेगा।
2. ऐसे ही हम शल्य चिकित्सा की ट्रेनिंग तो ले लेते है लेकिन यह कहते आघाते भी घूमते रहते है कि हमारा विज्ञान तो इतना इतना आगे था कि अभी तो कुछ नहीं हमारे पूर्वज तो यह यह कारनामें कर लेते थे। यह सब कुछ विज्ञान संबंधित बड़े बड़े सम्मेलनों में होता रहा है। हमारी शिक्षा क्यों विज्ञान और जीवन क्रम के विकास में रची गई उलटी कहानियों को तोड़ने के बजाय उन्हें मजबूत कर देती है।
कितना भी विज्ञान पढ़ा लिखा व्यक्ति हो कार्बनडाइऑक्साइड का फॉर्म्युला भी पता हो लेकिन हवन से वातावरण शुद्ध होता है के विश्वास से नहीं डिगेगा। उलटे वैज्ञानिक तथ्यों का प्रयोग अपने विश्वास को सही करने में ही लगायेगा
नाभकीय विखंडन और संलयन पढ़ते ही हम अर्जुन और अश्वत्थामा के पशुपात अस्त्रों की तारीफ में पहुँच जाते है, गति के नियम, सूर्य से दूरी, सूर्य का आकार की जानकारी भी हम मिथकीय पात्रों से जोड़ते है और कुछ एक दम नया खोज पाने की क्षमता का विकास तो दूर कोई भी तर्क इनके इतर करने की क्षमता अपवाद छोड़ दे तो हमारी वैज्ञानिक शिक्षा विकसित नहीं कर पाती है।
यदि हम स्कूली शिक्षा में जो फॉर्मूले, परिभाषाएं रटाते भी है उनकी जगह कुछ और परिभाषाएं या फॉर्मयुले भी रटाने लगे तो उससे क्या फर्क पड़ेगा या किसी को क्या पता चलेगा। इन बातों की भी क्या गारंटी है जो हम विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है वह ठीक है और धार्मिक पुस्तकों में लिखा गलत है?
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.