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नोट –
1. इस लेख में हमारे संबंधों या हमारे एक्शन से संबंधित कई बातें दिखने में ऐसी हो सकती है जो पितृ-सत्ता संबंधित कारकों के परिणाम जैसी हो लेकिन उन संबंधों को जीने वाले व्यक्ति उनमें एक अलग मानसिकता/जीवन-मूल्य/मैत्री-भाव आदि लिए हुए हों या फिर जीवन में कुछ बातों में एक्ट किए जाने वाली बाते परिस्थितियों के कारणवश मजबूरी में होती है, न की पितृ-सत्ता की मानसिकता के कारण। आपसे निवेदन है कि इस लेख को कृपया अंत तक पढ़े और लेख में उठने वाले प्रश्नों को केवल आईने के रूप में लें जो लिखने वाले पर भी लागू होता है।
2. यह लेख लंबे समय से स्त्रियों के शोषण को किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराता है। पुरुषों के सापेक्ष में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति के आधार पर समान अधिकारों, शिक्षा, समानता, शैक्षणिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण, समाधानों, सामाजिक उपायों व संवेदनशीलता का समर्थन करते हुए किसी भी तरह के सत्तात्मक समाज के कारकों को समझते हुए मानसिक/शारीरिक हिंसात्मक व्यवस्थाओं से बाहर निकलने का प्रयास करता है।
3. कुछ भी अंतिम सत्य नहीं होता और प्रत्येक लेख में परिमार्जन की संभावना होती है।
इस लेख को निम्न चार भागों में पढ़ा जा सकता है यदि टिप्पणियां पूरा लेख पढ़ने के बाद करेंगे तो अच्छा लगेगा।
• पितृ-सत्तात्मक समाज के मूल्यों में क्या महिलाओं का भी सक्रिय योगदान है?
• पितृ-सत्तात्मक समाज की कंडीशनिंग व प्रभाव
• पितृ-सत्ता के उदय की (आदिम) परिकल्पनाएं
• समाधान की ओर
पितृ-सत्तात्मक समाज के मूल्यों में क्या महिलाओं का भी सक्रिय योगदान है–
प्रकृति किसी भी मनुष्य को लैंगिकता (नर, मादा, ट्रांसजेंडर आदि) के आधार पर अच्छा या बुरा नहीं पैदा करती है, लालच, नफ़रत, दुर्व्यवहार, कब्जा जैसी बातों में पुरुष और महिला दोनों ही एक जैसी होड़ करते है। इसमें यदि आप कहेंगे कि कोई एक सामाजिक कंडीशनिंग के कारण ऐसा करता है तो यहीं तर्क आपको दूसरे पर भी लागू करना होगा। किसी भी व्यवस्था के चलने या बढ़ने में भले ही वह व्यवस्था शोषण की हो, दोनों ही पक्ष उस व्यवस्था के मूल्यों को मानते है, भले ही यह जाने अनजाने या अज्ञानता में किया जाता हो या प्रतिक्रियाओं जनित सतही विरोध के आधार पर किया जाता हो लेकिन यदि आप पितृ-व्यवस्था के मूल्यों को जीवन में जी रहे है तब भी यह विरोध भी इसी व्यवस्था का वाहक बनता है। हाँ यदि शोषित पक्ष यह तर्क देता है कि इस व्यवस्था में शोषक ने लंबे समय तक लाभ लिया है अब बारी उन्हीं मूल्यों पर शोषित वर्ग के लाभ लेने है तो लेखक को तो कम से कम इस बात से कोई आपत्ति नहीं है, हाँ इसे यदि पितृ-सत्ता के मूल्यों को बढ़ावा देने के साथ ही पितृ-सत्ता का विरोध या पितृ-सत्ता के खिलाफ लड़ाई बताई जाए तब मैं इसे जरूर एक तथ्यात्मक त्रुटि या कन्सेप्ट के बारे में अधूरी समझ के रूप में ही देखूँगा।
यहाँ तथ्यात्मक त्रुटि कहने से तात्पर्य है कि कोई भी व्यवस्था तब तक लोकप्रियता हासिल नहीं करती या इतने लंबे समय तक अपने आप को बनाए रखना संभव नहीं है जब तक शोषक और शोषित दोनों ही उसके मूल्यों में विश्वास न रखते हो व उसके आधार पर लाभ न लेते हो। हाँ लाभ का मॉडल जरूर पिरामिड नुमा होता है जैसे कि पुरुष जाति-व्यवस्था या रंगभेद व्यवस्था में शोषित हो सकता है लेकिन पिता पति भाई की भूमिका में साथ के साथ शोषक भी हो सकता है, एक स्त्री भी जाति व्यवस्था, रंगभेद व्यवस्था या माता की भूमिका में अन्य स्त्री, पुरुष व बच्चों पर शोषक की भूमिका में हो सकती है व साथ के साथ पत्नी, बहन की भूमिका में शोषित हो सकती है। बहुत से परिवारों या अन्य संस्थाओं में महिला ही आर्थिक, राजनैतिक, संपत्ति पर अधिकार व अन्य निर्णय लिए जाने की मुख्य भूमिका में भी देखी जा सकती है, लेकिन मूल में देखा जाए तो यह भी पितृ-सत्तात्मक मूल्यों के आधार और उनकी बढ़ोत्तरी ही है।
आप यहाँ एक यह तर्क भी दे सकते है कि यह सब लिखने वाला पुरुष है और उसे शोषित वर्ग के बारे में कुछ नहीं पता है या उसे यह कहने का अधिकार नहीं है, एक पुरुष के रूप में यह सब बातें कहने का नैतिक अधिकार भले न देना चाहे लेकिन एक महिला की संतान होने के नाते यह पूछा जा ही सकता है कि जिस समाज में बच्चे पैदा होने के बाद से लालन-पोषण का काम महिलाओं की ही जिम्मेदारी रहा है तब कैसे पितृ-सत्तात्मक मूल्य बढ़ते क्रम में बिना महिलाओं की भूमिका/समर्थन के आगे बच्चों में इतने लंबे समय तक पहुंचते रहे है?
आगे बढ़ते हुए पितृ सत्ता की कुछ मुख्य कारक/प्रभाव पर नजर डाल लेते है कि किन आधार पर स्त्री और पुरुष अनजाने या जानबूझकर पितृ-सत्ता के वाहक ही होते है –
– प्रकृति, जिसका अन्य जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों की तरह ही एक भाग मनुष्य भी है और प्रकृति अपने आपको नवीनीकृत करती रहती है, जिसके लिए -प्रजनन मुख्य तत्व उभर कर सामने आता है। इसी में अधिकतर प्रजातियों में कुछ जैविक अंतर है, जिसके आधार पर हम नर और मादा का अंतर देख/निर्धारित कर पाते है, जिसमें दो व्यक्तियों/प्राणियों को प्रजनन के लिए प्रेरित होते है और हर एक व्यक्ति ऐसा महसूस ही करें यह भी जरूरी नहीं है, कुछ व्यक्ति हो सकता है अपने ही लिंग के प्रति आकर्षित होते हो या किसी के प्रति भी आकर्षित न होते हो, इसमें प्रकृति कोई नियम तय नहीं करती है व न ही वह इसके लिए कुछ अच्छा बुरा मानती है। न ही प्रकृति ऐसा कोई नियम बनाती है कि आप के अंगों का प्रयोग केवल सर्वाइवल या री-प्रॉडक्शन के लिए ही होते रहना है। मनुष्य और बाकी जीव-जन्तु भी अपने शारीरिक अंगों का प्रयोग वह अंग जिन मुख्य काम के लिए है उनसे अतिरिक्त भी कई कामों में लेते रहे है। सेक्सुअल इच्छाओं, आकर्षण से आदिम युग से अब तक के मनुष्यों पर कई प्रभाव दिखाई पड़ सकते है मसलन बच्चा स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट बिना किसी परेशानी के पैदा हो, इसके लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही ऐसे व्यक्तियों का चुनाव करने में रुचि दिखा सकते है जो शारीरिक रूप से सर्वाइवल के लिए ज्यादा उपयुक्त हो, पुरुष ऐसी स्त्री को चुनना पसंद करेगा जो प्रसव पीड़ा को झेल सके, जिसके स्तनों से बच्चें के लिए दूध ज्यादा होने की संभावना हो। शायद यहीं कारण है कि पुरुष आज भी अपने इन अंगों के आकर्षण के प्रति अपनी आदिम मानसिकता को कहीं गहरे दबाए बैठा है!
आप कह सकते है लेकिन इसका पितृ-सत्ता से क्या संबंध है? इसका पितृ-सत्ता से सीधा संबंध यह है कि जब स्त्री-पुरुष सेक्सुअली एक दूसरे के निकट आते है तो दोनों के ही शरीर में रक्त-बहाव से लेकर हाव-भाव में परिवर्तन आते है जैसे कि होंठों का लाल होना, गालों पर सुर्खी आना, छाती आदि में कसाव आना शामिल है, यह एक सामान्य प्रक्रिया है जो घटित होती है, लेकिन जैसे ही इस प्रक्रिया को किसी एक पक्ष तक सीमित कर दिया जाता है और वह पक्ष अपने आप को हर समय इसी तरह से दिखाने को तत्पर रहता है अब इसके लिए वह भले कृत्रिमता को धारण करे जिसमें लिपिस्टिक, नेल-पॉलिश, रंग गोरा करने की क्रीम, बालों में रंग भरना, स्तनों में उभार के लिए पैडेड, पुश-अप ब्रा, कॉस्मेटिक सर्जरी का प्रयोग आदि शामिल है, जिनका प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से तो नहीं किया जाता है, उल्टे अधिक तंग कपड़े, कैमिकल स्वास्थ को नुकसान ही पहुंचाते है। तर्क दिया जा सकता है कि किसी व्यक्ति की यह खुद की पसंद का मसला हो सकता है तो इस तर्क से कोई खास असहमति भी नहीं है कि वह व्यक्ति चाहे जंगल में अकेला रह रहा हो या अपने निजी स्पेस में भी इसी तरह रहता है; यह उसकी व्यक्तिगत पसंद का मामला है परंतु सामाजिक कंडीशनिंग के कारण यह जब खुद को पुरुषों के सामने आकर्षक दिखाने का, दूसरी महिलाओं को जलाने का कारण बन जाता है, तब यह पितृ-सत्ता का ही प्रभाव है जहां शोषित वर्ग में आपस में अपने आप को कृत्रिम व अन्य तरीकों से श्रेष्ठ दिखाने की होड़ लेकर आती है।
जैविक लिंग भेद को जैसे ही भेदभाव का जरिया बना दिया जाता है, उसके आधार पर मनुष्य द्वारा नियम, मानसिक संस्कार आदि तय कर दिए जाते है, तब मामला एक दम अलग हो जाता है। यदि आप संपत्ति पर कब्जे, उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाते रहने, आगे स्थानांतरित करते रहने संबंधित मानसिकता को जीते है जिसका एक प्रसार बच्चों को भी इन्हीं मूल्यों के आधार पर पैदा और कन्डीशंड किया जाता है, तब भी यह पितृ-सत्ता का ही एक मूल्य है, पितृ-सत्ता भले ही महिलाओं को संपत्तियों में मालिकाना हक नहीं देती है लेकिन महिलाएं भी पिता/भाई/पति/पुत्र आदि के द्वारा इस मालिकाना हक को मानसिक रूप से तो जीती ही है या समर्थन करती है।
इस संदर्भ में निम्न बातों को भी देखा जा सकता है-
– यदि आप स्त्री/पुरुष को मेरा पति/पत्नी/पुत्र/पुत्री/पिता/भाई/बहन को पितृ-सत्ता आधारित पारिवारिक मूल्यों जिसमें समय के साथ कई नियम/संस्कार आदि जुडते चले गए है के आधार/मूल्यों जिनमें कब्जा/स्वार्थ/मान-सम्मान/यौनिक मूल्य, काम-काज, सम्पत्ति का निर्धारण आदि शामिल है व उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर उपजे अपराध-बोध, अपमान, दुख वाले भाव भी है। इसी की एक्सटेंशन में किसी पुरुष या स्त्री का किसी दूसरे पुरुष या स्त्री के साथ आने के निवेदन को अस्वीकार करने पर कब्जे/सुख आदि भावना के टूटने से उपजा गहरे दुख, या किसी पुरुष या स्त्री का इस तरह के भाव को एक तरफा मानना कि उसने तो किसी को पत्नी/पति मान लिया है / उसके मन में तो कोई एक ही है भी पितृ-सत्तात्मक मूल्यों की उपज है या यह भी कह सकते कुछ इसी तरह के भावों की अधिकता के कारण ही किसी भी प्रकार की सत्तात्मक व्यवस्था का उदय है।
– यदि कोई भी व्यक्ति कपड़ों को लेकर मौसम आदि से भौतिक सुरक्षा के अतिरिक्त किसी भी प्रकार की मान-सम्मान आदि की मानसिकता रखते है, तब यह पितृ-सत्ता की ही कंडीशनिंग है, चाहे यह धारणा पुरुष की स्त्री नुमा कपड़े पहनने की शर्म के प्रति हो या महिलाओं को क्या पहनना चाहिए वाली मानसिकता हो या महिलाओं की यह मानसिकता स्वयं के प्रति हो।
– स्त्री-पुरुष द्वारा स्वयं को या किसी और स्त्री-पुरुष को शारीरिक संबंधों के आधार पर सही-गलत मानना। सेक्सुअल भावनाओं को छिपाना, उनसे भागना या उनसे कुंठित महसूस करना, सेक्सुअल मूल्यों पर बातचीत, निर्धारण व बदलाव न कर पाना, पितृ-सत्ता के मूल्यों के आधार पर स्वयं को व दूसरों को जज करना, प्रतिक्रिया आधारित भावों से फिर अन्य और कुंठाओ/मानसिक बीमारियों को जीते रहना।
– पितृ-सत्ता को बनाए रखने के लिए गढ़ी गई धार्मिक कथा-कहानियों, मिथकों आदि में विश्वास करना उन्हें आदर्श बना कर रखना।
– महिला को संपत्ति मानते हुए कन्या दान, इसी की एक्सटेंशन दहेज आदि।
पितृ-सत्ता के उदय की (आदिम) परिकल्पनाएं –
गर्भावस्था – पितृ-सत्ता के स्थापित होने में एक तथ्य गर्भावस्था का उभर कर सामने आता है, पुरुष बिना गर्भ धारण किए कई कई स्त्रियों से संबंध बनाते हुए अपनी और बाकी लोगों की सुरक्षा में योगदान दे सकता था लेकिन गर्भ धारण की स्थिति में स्त्री का शिकार पर जाना, अपने लिए भोजन जुटाना मुश्किल काम था, व इस अवस्था में पुरुष पर इन कार्यों में सहयोग के लिए निर्भर होते जाना पितृ-सत्ता की शुरुआत कही जा सकती है लेकिन हाथी और चिम्पेंजी में हमें इसके विपरीत मातृ-सत्तात्मक समाज देख को मिलता है और नर उसमें मादाओ के समूह से अलग सहयोगी/प्रतिद्वंद्वी के रूप में रहते है। मादा आपसी सहयोग द्वारा बच्चों का लालन-पोषण करती है जबकि मनुष्य समाज के अधिकतर इतिहास में ऐसा बहुत कम देखने को मिला है।
बाहुबल – पितृ-सत्तात्मक समाज के निर्माण में बाहुबल ने भी एक भूमिका निभाई हो सकती है जिसमें सामूहिक रूप से देखने पर पुरुष स्त्रियों के मुकाबले लड़ने, और शक्ति वाले काम करने में अधिक दक्ष दिखाई पड़ते है लेकिन यहाँ भी जैसे ही मामला सहनशक्ति, लचीलेपन, समूह बना कर काम करने का आता है इसमें महिलायें पुरुषों से कहीं आगे है। और यदि बाहुबल ही पैमाना माना जाए तो कई और जानवर मनुष्यों से कई गुना ताकत रखते है उन्हें मनुष्य के ऊपर राज कर लेना चाहिए था।
सेक्सुअल्टी – पितृ-सत्तात्मक समाज बनने का प्रमुख एक कारण दो पार्टनर में से एक का एक्टिव पार्टनर होना व दूसरे का पैसिव पार्टनर होना है। मतलब की एक पार्टनर को शारीरिक संबंध बनाने के लिए उत्तेजना आदि की जरूरत नहीं, बेमन भी खुद के द्वारा या सामने वाले के द्वारा शारीरिक संबंध बनाए जा सकते है जबकि एक्टिव पार्टनर के साथ इस तरह की जोर जबरदस्ती कम से कम हिंसा के बल तो नहीं की जा सकती। यह भी एक कारण हो सकता है जिसमें एक्टिव पार्टनर समय के साथ अपने पैसिव पार्टनर को कंट्रोल करते चले गए।
कृषि व औद्योगीकरण (आधुनिक परिकल्पना)- पितृ-समाज को स्थापित करने में दूसरी जो सबसे प्रमुख भूमिका निभाई गई होगी वह थी कृषि व्यवस्था या औद्योगीकरण ने। हाथी और चिम्पेंजी, मनुष्य से इस काम में एक दम अलग हो जाते है, उन्होंने अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि करना नहीं शुरू किया। कृषि व्यवस्था ने मनुष्य का घुमंतू स्वभाव वाला पहिया जाम कर दिया, औरतें गर्भावस्था व बच्चों के लालन पोषण के कारण घरेलू काम-काज की भूमिका में और अधिक स्थिर हुई। ताकतवर समूहों द्वारा एक दूसरे के कबीलों पर जमीन और महिलाओं को कब्जाने वाले युद्ध शुरू हुए, स्त्रियों को और अधिक सुरक्षा की जरूरत ने पुरुषों को अंतत: कब्जे, सुरक्षा आदि मूल्यों पर खड़ी हुई पितृ-सत्ता ने लाभ पर ला कर खड़ा कर दिया। कृषि भूमि के प्रसार में स्त्रियाँ और बच्चें और पुरुष भी निजी संपत्तियों में बदलते चले गए। यहीं से राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ताओं का उदय हुआ। प्राकृतिक-अप्राकृतिक, पवित्र-अपवित्र की परिभाषाएं गढ़ी गई। व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अलग अलग मिथक गढ़े गए। जिन स्त्रियों ने इसे नहीं स्वीकारा उन्हें चुड़ैल, जादूगरनी बोलकर मारा गया बाकायदा विच-हन्टिंग, डायन जैसे कार्यक्रम चलाए गए।
समाधान की ओर –
इन सब कारणों के बावजूद बहुत हिस्सों में मातृ-सत्तात्मक समाज भी अस्तित्व में आए खासकर जहां कृषि आसान नहीं थी या सर्वाइवल के लिए कृषि या औद्योगीकरण के आसान विकल्प मौजूद थे। मातृ-सत्तात्मक समाज पितृ-सत्तात्मक समाजों से इतिहास में कम हिंसक रहे है लेकिन इसके भी मुख्य कारण शारीरिक परिस्थितियाँ की भूमिका अधिक रही है न कि सामाजिक मूल्यों की। लेख की शुरुआत में किसी परिवार या संस्था में महिला के मुख्य भूमिका पर होने की बात की गई है तो क्या यह मातृ-सत्ता हुई ! नहीं, मातृ-सत्तात्मक समाज में महिलाएं सेक्सुअली कुंठित नहीं होंगी। यह पितृ-सत्तात्मक समाज की अनिवार्यता है। दोनों में धार्मिक कुंठाओ के प्रकार और संपत्ति के अधिकार के तौर तरीके भी अलग होंगे।
पहले हिंसक स्वभाव के लिए मैं पुरूषत्व व संवेदनशील स्वभाव के लिए स्त्रीत्व जैसे शब्दों का प्रयोग करता रहा हूँ लेकिन हमने भावों का पहले ही इतना नामकरण किया है कि उनके बारे में वह नाम ही उन्हें देखने में बाधा बन जाते है, और फिर भाव जब स्त्री-पुरुष दोनों में ही एक जैसे है तो क्यों स्त्रीत्व या पुरूषत्व के नाम पर ही क्यों भावों को मनुष्यों में बांटा जाए क्यों नहीं फिर व्यक्ति को ‘गेयत्व, लेसबियनत्व, या न्यूट्रलीयत्व’ भाव वाला होना चाहिए? सबसे ज्यादा शोषण तो स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा गे, लेस्बियन, ट्रांसेक्सुअल लोगों का ही हुआ है। किसी पुरुष में ज्यादा स्त्रीत्व हो सकता है या किसी महिला में ज्यादा पुरूषत्व हो सकता है, मुझे लगता है इस तरह का वर्गीकरण भी स्त्री और पुरुष में जन्म के आधार की कंडीशनिंग ही पैदा करता है, जो पितृ-सत्ता का ही एक विचार हुआ। बेहतर है कि हम सभी अपने आप को मनुष्य के तौर पर ही देखे और हमारे व्यक्तिगत जीवन, व्यवहार आदि के आधार पर ही हमारा मूल्यांकन हो न कि हम किस शरीर के खोल में पैदा हुए है के आधार पर।
यदि हम (स्त्री-पुरुष) कुछ व्यक्तिगत लाभ के लिए ही केवल कुछ बदलाव नहीं चाहते है किसी भी हिंसात्मक व्यवस्था जिसमें कब्जा, लालच, भय, प्रतिक्रिया आदि भाव अधिकता में सक्रिय रहते है, उनसे निकलने के लिए, सजग, संवेदनशीलता की समझ के साथ एक नए प्रकार का समाज जो बिना किसी यूटोपियन विचार के ही संभव हो सकता है, हमें हिंसा के हर एक पैटर्न को हमें अपने अंदर पूरी ऊर्जा से देखना होगा, अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करना होगा, नहीं तो प्रतिक्रियाओं में, कोरी भावुकताओं के दुख में हम हिंसाओं में बढ़ोत्तरी ही करते रहेंगे।
क्रमश:
पितृ-सत्ता और सेक्सुअल्टी
पितृ-सत्ता और पूंजीवाद
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सादर
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.