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पहले डर को ईश्वर का रूप दिया गया , अपने डर को समझने के बजाये ईश्वर रूपी पलायन कर लिया , उसके बाद जो खुद नहीं भोग सकते वो सारे भोग ईश्वर और अवतारीय कल्पना में जिए जाते है। मेहनत नहीं करनी, बैठे बिठाये आनन्दम, वैभव, कोई भी मनमर्जी, अप्सराएं, डांस पार्टी इससे अलग ईश्वर क्या है! फिर यही सब उससे माँगा जाता रहा है।

घोर नास्तिकपने में जीते हुए खुद को धार्मिक और आस्तिक समझते है। जहां मन ने कुछ टारगेट फिक्स कर लिया, भिखमंगपन पैदा कर लिया अगर उस पर गौर नहीं हो पाई वही स्वयं से दूरी बन जाती है।

2
आस्तिक = नास्तिक।

हिंसा = अहिंसा।
गुस्सा = कभी न गुस्सा।
सुविधाओं का सुख = असुविधाओं का सुख।
अपने दिमाग को एक विचाधारा के जाल से निकलने के लिए = उसी दिमाग द्वारा बनाई गयी दूसरी विचारधारा के जाल में फँसना।
गुस्सा, डर, इच्छाएँ, प्राकृतिक रूप में उतने ही अच्छे गुण है जितने प्रेम और संवेदंशीलता। लेकिन हम अपने ऊपर कंडीशनिंग को इतना हावी कर देते है कि अपने मानवीय गुणों को ही भयंकर रूप से विकृत कर देते है, अब विकृत रूप में घड़ी के पेंडुलम की तरह कोई से भी सिरे पर रहिये बात एक ही है। संवेदंशीलता समय, संस्कार, रिवाजों, तर्कों आदि पर आधारित या निर्भर नहीं होती। शब्दों का अपना एक स्थान है लेकिन अंत में जीवन यथार्थ है।

3
किसी भी तरह के पूजा पाठ में, किसी भी ईश्वर को पूजने में, किसी भी गुरु से खुद को जोड़ लेने में हम अपनी ही पूजा कर रहे होते है अपने सिवा हम किसी को पूज ही न सकते। 

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यक्ष – नास्तिकता क्या है ?
युधिष्ठर – तथाकित धर्म गढ़ना, फर्जी ईश्वरों की स्थापना करना, अपने द्वारा स्थापित किये गए धर्म, काल्पनिक ईश्वरों एवं कपोल कथाओं के लिए खुद को सम्मोहित कर प्रकृति, विज्ञान, यथार्थ से दूर चले जाना ही नास्तिकता है।
यक्ष- आस्तिकता क्या है?
युधिष्ठर- झूठ को झूठ के रूप में देखने के सत्य को देखना, जो यथार्थ है उसके साथ सीधा संबंध ही आस्तिकता है। 


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance. 

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