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1-
भाजपा –
पिछले पांच सालों को यदि देखा जाये तो हिंदू-मुस्लिम वाले साम्प्रदायिक नफ़रत भरे भाव को जीने वाले या न जीने वाले व्यक्तिगत स्तर पर भाजपा से नाराज ही दिखे है। अब यह अलग बात है कि राजनैतिक रणनीतियों के तहत वह अपने भाव को पब्लिकली दिखाते है कि नहीं या फिर व्यक्तिगत नाराजगी को बूथ तक लेकर जाने का भी सोच रहे है कि नहीं।मोटा मोटा देखा जाए तो पांच साल गन्ना किसानों के अच्छे नहीं निकले है। आखिरी समय में भाव बढ़ाया गया लेकिन इसका असर भी लोगो पर उल्टा ही पड़ा है।
कई क्षेत्रिय जातियों के साथ सरकार का पक्ष भी भेदभाव वाला रहा जिसे लेकर उन जातियों में अच्छी खासी नाराजगी है।
जिन जातियों में नाराजगी लोगो तक नहीं भी पहुँची है वहां नारजागी क्षेत्रीय नेताओं में उन्हें कोई भाव न दिए जाने के कारण तो है ही जिसका असर अभी हाल फिलहाल के स्तीफों में दिखा भी है।इसका असर चुनाव तक जायेगा या नहीं यह भी देखने वाली बात होगी।
मंदिर और धर्म की बातें ठीक है लेकिन
लोगों के लिए रोजगार, बिजली बिल, खेती-बाड़ी महंगाई भी ऐसा तो है नहीं कि किसी और के जीवन से सम्बंधित हो और आम आदमी इस और बिल्कुल सोचेगा ही नहीं। वह यह तो कह नहीं दिया था कि धर्म और मंदिर के नाम पर हालत ही खराब कर दो।
राजनीति अब मठाधीशी तो है नहीं, यहां तो अगर आप ईश्वर नहीं बने है तो लोगो से मिल मिलाकर साथ लेकर ही चलना होगा।
सरकारी कर्मचारियों का जीवन भी रोते गाते ही निकला है अब यह गुस्सा अधिकारियों के प्रति ही मन ही मन मे रहता है या कही मन में सरकार के प्रति भी नाराजगी इस चुनाव में देखने को मिलेगी!
चुनाव भाजपा के लिए बहुत आसान और स्पष्ट होने वाला है यह कहना तो अभी मुश्किल है।
2
सपा –
सबसे पहले तो सपा समर्थकों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं जिस प्रकार वह पिछली बार चुनाव होने से पहले ही जीत गए थे, इस बार भी वो पहले से खुद को जीता मान कर चल रहे है।सपा नेतृत्व और समर्थकों ने मानो कसम खा रखी हो कि अपने पैरों पर तो हम खुद ही कुल्हाड़ी मारेंगे। सपा समर्थकों को शायद अंदाजा ही नहीं है कि उनकी कितनी छोटी-छोटी बातों से जो लोग उनके साथ जुड़ने का सोच रहे होते है वह छिटक कर अलग हो जाते है। खुद को विकल्पहीन महसूस करते है या दबा हुआ महसूस करते है जिसके कारण वह जहां होते है वहां ही रुक जाते है।
जब पूरे पांच साल आपका व्यवहार सौम्य होता है लोकतांत्रिक होता है तो अचानक चुनाव से पहले इतने परिवर्तन के आखिर कौन-से कारण होते है?
सपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को कम से कम से दो चुनाव अपने निजी हित और पद की चिंता छोड़ देनी चाहिए और वंचित वर्ग के लोगो को अपने साथ लेकर चलने का, उन्हें संगठन में आधिकारिक पदों पर लेकर आना होगा। इतना बड़प्पन भी यदि सपा कार्यकर्ता और नेतृत्व नहीं दिखा पाता है तो उन्हें फिर अंदाजा नहीं है कि वह क्या खोने जा रहे है।
स्तीफा देकर लोगों का साथ आने का मतलब जरूरी नही है कि उनके साथ उनके लोग भी आए ही हो या वह पार्टी के साथ अचानक से जुड़ाव महसूस करने लगेंगे उसे अपना मानने लगेंगे। बाकी लोगो के साथ सीधे यदि आप अपनेपन रिश्ता और अधिकार नहीं पनपा सकते तो फिर काहे बात के समाजवादी?
3
चन्द्रशेखर –
इस बारे में कोई दो राय नहीं है कि चन्द्रशेखर का नाम जब से सामने है तब से वंचित वर्ग के दुख दर्द में हमेशा दिखाई दिए है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि यह सब काम बाकी के क्षेत्रीय नेता नहीं करते है। अपवाद छोड़ दे अधिकतर नेता लोग आजकल जनता के कनेक्ट में रहते ही है। चुनावी नेता बनने की आखिर यह पहली ही शर्त है।
लेकिन चन्द्रशेखर का यह सब काम क्या केवल चुनाव में कुछ पद या हिस्सेदारी तक के लिए ही सीमित है ? चन्द्रशेखर अभी तक एक उतावले व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करते ज्यादा दिखे है जिसके लिए वंचित वर्ग के दुख दर्द सत्ता में आने का केवल टूल या टोकन है।
और यदि टोकन नहीं है तो चन्द्रशेखर को घोषणा कर देनी चाहिए कि वह कभी सीधे राजनीति में नहीं आयेंगे बल्की वंचित वर्ग और संगठन के लिए काम काम करते रहेंगे। शोषित वर्ग को तो पहले भी बहुत लोग उनके वर्ग से नेता बनने के बाद भी शोषित रहा है, आप अब क्या नया करने वाले है। यदि करना है तो खुद पीछे रख कर बाकी लोगो को इन वर्ग से तैयार कीजिये, नेता बनने को, सत्ता पाने को तो और भी बहुत लोग तैयार हो जायेंगे आप वास्तविक जरूरतों पर जमीन पर काम करिए। अभी आपको एक्टिव हुए समय ही कितना हुआ है दूसरा कन्हैया कुमार बनने की इतनी भी क्या जल्दी है। लेकिन यदि आप जैसा कि बोलते है कि अपने काम के लिए कर्मठ है तो अभी से सत्ता के लिए मारा-मारी क्यों?
4
बसपा –
मेरी यह जानने की इच्छा है कि जब आप लोग सत्ता में नहीं होते तब आप वंचित समाज के बीच क्या काम कर रहे होते है। उन्हें किस प्रकार से सामाजिक रूप से जागरूक कर रहे होते हो। ऐसे कितने लोग है जो राजनैतिक रूप से एक्टिव हो और वह बहन जी की जगह लेने को तैयार किए गए है।
यहां यहां केवल यह काम हुआ है कि बहन जी के अलावा कोई और नेता वंचित समाज से नहीं पनपना चाहिए। यह किस प्रकार का काम है कि आप अपने ही लोगो के लिए काम कर रहे लोगो से मिलने को भी तैयार नहीं है।
अपने ही लोगो का कितना बड़ा वर्ग इस राजनैतिक पार्टी से अब जुड़ाव नहीं मानता है क्या इस पर भी कोई बात नहीं होती है।
समाज का मतलब क्या केवल वोट और सत्ता ही होता है। सत्ता में ही बताइए आपने वास्तविक रूप से राजनैतिक टूल का इस्तेमाल उन्हें जागरूक और जीवन स्तर में ऊपर उठाने का काम किया है या काम का मतलब केवल सत्ता ही होता है उससे पहले या बाद में कुछ नहीं होता।
मेरी इच्छा है जानने की अपने आप को बहुजन नेतृत्व अपने लोगो के बीच किन-किन मुद्दों पर समाज के बीच खड़ा था। केवल ट्विटर चलाना और मीडिया बाइट देना तो राजनीति नहीं होता है।
वह लोग जो आपसे जुड़े, किन्हीं भी हालातों में काम किए क्या वह अब अपने आप को थका हुआ और अलग थलग महसूस नहीं करते। सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उनकी जगह आपने पार्टी में किन लोगों को जगह दी, अधिकार दिए क्या यह प्रश्न उनके सामने नहीं है?
मठाधीशी तो जब लोग उनकी ही कबूलने को तैयार नहीं जो जाति व्यवस्था में अपने आप को ईश्वर घोषित किए जा रहे थे तब आप अपने व्यवहार और काम काज के तरीके को क्यों नहीं देख पाए कि आप भी अलोकतांत्रिक होते हुए अपने ही लोगो से दूर होती चली गई है। बसपा इन चुनावों में कुछ कर सकती है तो वह यही है कि अपनी अगली पंक्तियां तैयार करे। लोकतंत्र को समझे। सत्ता को अंतिम मान कर काम न करे।
5
काँग्रेस –
कांग्रेस नेतृत्व को कम से कम से तो बनती है कि क्षेत्रीय स्तर पर संगठन बेहद कमजोर होने के बावजूद विपक्ष के रूप में अनेकों जरूरी मुद्दों पर लोगो के बीच उपस्थिति बनाई हुई है। चुनाव में सबसे कमजोर पक्ष होने के बावजूद आधी प्रतिशत आबादी को भी सत्ता में सम्मलित करने की ओर कदम बढ़ाना साहसिक कदम ही माना जायेगा। कॉंग्रेस कम से कम इस बार जिस तरह से चुनाव लड़ रही है वह सत्ता भले न बदले लेकिन भारतीय राजनीति को बदलने की ओर एक जरूरी कदम तो जरूर है।
बधाई
कॉंग्रेस के पास आंतरिक और बाहरी तौर पर जूझने को बहुत कुछ है। मेरे जैसे बहुत लोगो के लिए जिन्होंने कभी कॉंग्रेस को यूपी की सत्ता में देखा भी नहीं है लेकिन फिर भी कॉंग्रेस की एक इमेज छाप दी गई है कि सत्तर सालों से सत्ता इन्हीं के पास थी। कॉंग्रेस को ऐसे कई प्रश्नों के जवाब तलाशते हुए, देते हुए लोगो के पास जाना है।
यूपी की चुनावी उठा पटक पर अभी इतना ही।
सादर
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Nishant Rana
Engineering graduate; avid reader, passionate writer, exploring and expanding his limits through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational fronts, rural-journalism and local governance.