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एक मजदूर की आय और एक इंजीनियर की आय में अधिकतम दो गुने का अंतर तो समझ आता है। कई देशों में यहीं स्थिति है कि ज्यादा स्किल वाले को या ज्यादा विवेक से ज्यादा चीजें हैंडल करने वाले को मिलने वाला पैसा सिम्बोलिक रूप से सबसे कम वाले से थोड़ा ज्यादा होता है।
दोनों को मिलने वाली सुविधाएं, रहन सहन लगभग समान ही होते है।
ऐसा नहीं कि एक को सर्वाइव में ही दिक्कत आ रही और एक के पास जरूरत से ज्यादा है।
इन सब से अलग कुछ एक परसेंट के पास जरूरत से बहुत ज्यादा होगा ही होगा यह रोका नहीं जा सकता लेकिन उनका ज्यादा होने से बाकी किसी के शोषण करने वाला या जीवन को मुश्किल वाला नहीं होता।
मोटा मोटी यह एक तरह से न्याय कहा जा सकता है।
बात आती है भारत की तो यह स्थिति लगता नहीं कि हमारे जीवनकाल में आ सकती है। और अगर आती है तो बहुत लोगों को समझ आ जायेगा कि उनकी वास्तविकता क्या है, वे वास्तव में कितने पानी में खड़ा होना डिजर्व करते है।
दूसरी बात आती है मेहनत और डिजर्व करने वाली।
एक शार्प शूटर , सुपारी लेने वाला भी बोल सकता कि मैं बहुत मेहनत करता हूँ बहुत दिमाग अपना पूरा प्लान बनाने अपने को बचाने में, जिसकी हत्या करनी उसकी रेकी करने , जिम जाने, स्किल पर काम करने में लगाता हूँ तो डिजर्व करता हूँ।
ऐसी ही मेहनत की बात बलात्कार करने वाला भी कर सकता, सड़क पर लोगों को धमकाता पैसे वसूलता गुंडा या पुलिसवाला भी कर सकता, ट्रैन में लोगों को लूटता डाकू या टीटी भी कर सकता। किसी कार्यालय में आम लोगों को प्रताड़ित करता आदमी किसी कोयले की खान में लोगों को मार मार कर काम कराने के लिए रखा गया कोई व्यक्ति, कोई जेबकतरा सभी मेहनत और डिजर्व करने की बात बोल सकते।
मेहनत के लिए यदि सात्विक मेहतन शब्द प्रयोग किया जाये तो इस तरह की मेहनत यह हुई कि कोई भी व्यक्ति दैनिक प्रयोग की चीजो के लिए मेहनत कर रहा इसमें कुर्सी बनाने से लेकर दैनिक उपयोग के अन्य उपकरण, अन्न सब्जी उपजाना, इन सब में प्रयोग होने वाले टूल बनाना या अन्य कोई सर्विस प्रदान करना हुआ जो इस सब को आसान बनाता हो। अलग अलग डिपॉर्टेमेन्ट में अलग अलग स्किल के व्यक्ति हो सकते, नीचे से ऊपर तक सबकी जरूरत सिस्टम चलाने के लिए बराबर ही है। लगभग न्याय पूर्ण मॉडल वह हुआ कि नीचे से ऊपर तक सिम्बोलिक डिफरेंस वेतन सुविधाओ के साथ में चल रहा। (हजार कामगारों के सापेक्ष ऊपर को इंजीनियरिंग टीम, मैनेजिंग टीम और अन्य टीम व सदस्य भी कम ही होते जाते है तो बहुत बड़ा सामाजिक अंतर इससे नहीं आता है)
लेकिन जब औधोगिक कंपनियां, राज्य, कुछ एक पूंजीपति ही राजा टाइप चीजे चलाते है और पूरी व्यवस्था ही उन्हें शोषण आधारित बनानी हो तो जो सबसे नीचे उत्पादन कर रहे उन पर काम का बोझ भी बढ़ता है, जरूरत से अधिक उत्पादन क्रय विक्रय पर जोर होता है।
सारी कोशिश ज्यादा से ज्यादा शोषण से अधिक से अधिक लाभ की जाती है। इसके लिए अब बैंकिंग, पुलिस, न्यायालय , मीडिया हाउस सभी का प्रयोग किया जाता है। अब कोई भी इस तरह की व्यवस्था वाले माहौल में राज्य या पूंजीपतियों को मजबूत करने के लिए ईमानदारी से भी मेहनत कर रहा तो यह फिर सात्विक मेहनत नहीं रह गई।
विप्रो, रिलायंस या सरकार भी लोगों की मदद करती है लेकिन इस तरह की मदद का कोई मतलब होता ही नहीं है 100% से 2% निकाल कर चीजे कर रहे।
इस व्यवस्था के लिए काम करते हुए सैलरी से मदद भी कुछ ऐसा ही। यहां आप रोबिन हुड नहीं हुए। रॉबिन हुड शोषणकारी व्यवस्था को कमजोर करता था, लूटता था तब लोगों की मदद करता था न कि हिंसात्मक व्यवस्था के सेफ्टी वॉल्व की तरह काम करता था।
हम जो करते है वह शोषण वाली व्यवस्था को मजबूत करने वाला, अपना शोषण करवाने वाला है तब हम अपनी सैलरी के 100% से 60% तक कुछ कर पा रहे जो व्यवस्था चला रहे उनके 2% करने के सामने भी कुछ नहीं।
रह जाती है बात कि व्यक्ति करे तो क्या करे तो यह सबका अपना पर्सनल डिसीजन हो सकता कोई यह भी कह सकता कि मुझे तो केवल अपना देखना है इस तरह ही ठीक मुझे तो पैसा सुविधा दोनों ही मिल रही। कोई यह भी कह सकता कि मैं अपना कोई योगदान अपनी सुविधाओ या काम करने के लिए इस तरह की व्यवस्था में नहीं दूंगा।
एक व्यक्ति यह भी कह सकता कि कम से कम हिंसा जिसमें शामिल हो उस तरह से जीवन व्यतीत करूँगा। यदि यह उसके बस से बाहर रहा तो और कुछ सुविधाओ के लिए या मजबूरी में इस तरह के सिस्टम की हेल्प करते हुए भी ले रहा तो यह भी उसे पता है कि वह क्या कर रहा। लेकिन फिर ग्लोरीफाई या डिजर्व करने जैसी बात बोलना लेकिन ईमानदारी पूर्वक संभव नहीं हो सकता।
अंत में –
हमारी इकोनॉमिक ग्रोथ में इको वास्तव में कही है ही नहीं। यहां ग्रोथ/विकास पर्याय है इकोसिस्टम के विनाश के। पेड़, पहाड़ो, नदियों, धरती का दोहन ही तथाकथित इकोनॉमिक विकास है, जिसमें हम लोग काम/मेहनत/जॉब आदि अलग अलग तरह बातों के नाम पर इसमें सहयोग करते है और खुद को पाक साफ वाइट कॉलर जॉब जैसा भ्रम भी पाले रहते है। जबकि हमारी हैसियत एक मशीनरी जीवन जीते हुए रोबोट से ज्यादा कुछ नहीं होती जो विनाशकारी व्यवस्था में सहयोग करते हुए प्रकृति, बच्चों और व्यवस्था में सबसे नीचे काम कर रहे लोगो के खून और दोहन से चल रहा है।
चलते-चलते एक सवाल यह भी रखे चलता हूँ कि एक तरफ जीवन के सर्वाइवल को ही रोज जतन है और एक तरफ जीवन सुविधाओं अधिकारों आदि से भरा हुआ है तब उन बच्चों का क्या दोष है जो उन परिस्थितियों में पैदा होते है जिन्हें न स्वास्थ्य सुविधाएं मिलनी है, न सही शिक्षा मिलनी है, न ही पौष्टिक भोजन मिलना है। क्या इसे भी अपना जीवन जस्टिफाई करते हुए उन्हीं की गलती बताया जायेगा?


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance. 

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