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होमो सेपियंस जो आज के मानव से बहुत मिलता जुलता था या जिन्हें हम अपने पूर्वज कह सकते है अस्तित्व लगभग 2 लाख साल पुराना मिलता है।
करीब 82 हजार साल पहले मनुष्य के वोकल कॉर्ड का विकास हुआ जिसकी सहायता से मनुष्य ने आपस में संवाद करना आरंभ किया।
और करीब 12 हजार साल पहले मेसोपोटामिया जहां आजकल अरब और सीरिया है में मनुष्य के लिखने की शुरुआत मिलती है जहां पर कृषि की भी शुरुआत है।
मनुष्य का इतना लंबा समय लगभग बिना लिखने की जरूरत के रहा है।
लिखने की शुरुआत होने के कई कारण हो सकते लेकिन मुख्य तौर पर लिखने की जरूरत मानव सभ्यताओं के सामने कृषि उत्पादों के भंडारण का लेखा-जोखा रखने के कारण उत्तपन्न हुई। आज भी जिन आदिवासी समुदायों में कृषि नहीं होती है वहां उनकी लिखने जैसी जरूरत का विकास न के बराबर देखा जा सकता है।
मोटे तौर पर ये मान लेते है कि आजादी के समय पर देश में हिंदी टूटे फूटे तौर पर सब जगह समझ ली जाती होगी इसलिए हिंदी को अधिक मान्यता प्राप्त हुई। हिंदी के जिक्र का कारण केवल इतना है कि क्योंकि उस समय यह भी बहस का विषय रहा है कि संवाद के लिए जो भाषा लिखने के लिए रोमन लिपि प्रयोग में लाई जाए या देवनागरी लिपि का प्रयोग हो। रोमन लिपि का पक्ष यहाँ सेना द्वारा अधिक किया गया क्योंकि उनके काम काज में रोमन लिपि द्वारा हिन्दी का प्रयोग काफी समय से होता आ रहा था। यहां साथ के साथ हम यह तथ्य भी देखते चल सकते है कि तमिल भारत की सबसे पुरानी बोले जानी वाली भाषा रही जिसका इतिहास करीब 5 हजार साल पुराना है। दक्षिण भारत में आज भी अलग-अलग लिपि के प्रयोग के साथ कई भाषाएं प्रयोग में है। लिपि के स्वरूप भी समय के साथ बदलते हुए भी प्रयोग हुए है जैसे कि देवनागरी लिपि का बदला स्वरूप गुजराती और पंजाबी भाषा लिखने में देखा जा सकता है, मराठी लिखने में भी देवनागरी लिपि का प्रयोग अपने तरीके से दिखता है। कई बार मराठी के लिखे हुए को हिन्दी में गलत लिखा हुआ है जैसा समझने की गलती भी हम कर जाते है। पुरानी ऐसी कई लिपियाँ है जिनमें लिखे टेक्स्ट को आजतक पढ़ने में सफलता नहीं मिली है।
सबसे पुरानी किताब जो लिपिबद्ध होकर लिखी गई है उनमें ऋग्वेद को भी मान्यता प्राप्त है जो संस्कृत भाषा में है, ज्ञात तथ्यों में इसे लिखने में देवनागरी लिपि का प्रयोग हुआ है। पुराने समय में संस्कृत का स्वरूप किस प्रकार का रहा है वह हमें ठीक-ठीक नहीं मालूम और यह वर्तमान में प्रयोग होने वाली संस्कृत से कितना अलग रहा है इस पर भाषा विद्वानों के कामों को हमें देखना होगा। साहित्यिक भाषा का यह मतलब भी नहीं हो जाता कि वह भाषा आमजन की भाषा रही हो। सत्ताओं की भाषा का इतिहास भी दिलचस्प रहा है। राजाओं या आज भी सरकारों द्वारा प्रयोग किये जाने वाली काम काज की भाषाएं जन भाषा नहीं रही है। काम काज की भाषा के रूप में जब उर्दू को लिया गया है तब भी यह उर्दू का अरबी और फारसी स्वरूप ही प्रयोग में रहा है न कि भारतीय उप महाद्वीप में आम जन द्वारा प्रयोग किए जाने वाली उर्दू।
संस्कृत बोले जाने के पिछले कुछ आँकड़े भी दिलचस्प दिखाई पड़ते है 2001 की जनगणना में संस्कृत बोलने वालों की जनसंख्या 14135 थी , 1971 में 1282 और 1921 में 555 लोग!
उपलब्ध आंकड़ों में यदि और झाँके तो भारत की आजादी के समय 12% जनता केवल साक्षर थी। उसमें लिखना पढ़ना दोनों शामिल था या केवल पढ़ने को भी या इससे कम के कुछ मानकों को भी साक्षरता में लिया गया होगा इस बारे में और देखना होगा। यह आँकड़े कितने सही है या गलत है इन तथ्यों की जांच करना भी अभी से थोड़ा मुश्किल है लेकिन एक मोटे तौर पर इन आंकड़ों को भी ध्यान में रखा जा सकता है।
बुद्ध के समकाल में पाली भाषा जनसामान्य की भाषा के रूप में बोली जाती है बुद्ध ने भी लोगो से संवाद कायम करने के लिए पाली भाषा का प्रयोग किया है। महावीर के समय में जन संवाद की भाषा प्राकृत रही है। यह दोनों ही भाषाएं भी काफी पुरानी मानी जाती रही है और एक मान्यता यह भी है संस्कृत एक कृत्रिम भाषा थी जो इन दोनों भाषाओं से विकसित की गई। इस कारण यह तीनों भाषाएं आपस में काफी मिलती जुलती है। यह तर्क मुझे इस लिहाज से ठीक लगता है कि हमारा वॉकल कॉर्ड आसान शब्दों की ध्वनि से क्लिष्ट शब्दों को बोल पाने की और बढ़ता है जैसे घेरा, घेर, घर से गृह बोलने की ओर अपडेट हुआ जाएगा न कि इसके उलट, ऐसे ही खेत, खेतीय बोले जाने के हिसाब से क्षेत्र, क्षत्रिय से आसान शब्द है। इस लिहाज से मुझे तत्सम तद्भव शब्दों का पूरा खेल ही उलट लगता है हो सकता है यह खास भाषा को उच्च और सबसे प्राचीन भाषा स्थापित करने के लिए, या एक कृत्रिम भाषा को गढ़ने के लिए ऐसा किया गया हो?
लेकिन भाषाओं को लेकर जो मुख्य प्रश्न या संशय मेरे दिमाग में आते है मैं उन पर क्रमवार अपनी बात रखना चाहता हूँ वो ये है –
- जब कोई बच्चा या व्यक्ति कोई भाषा सीखता है तब ब्रेन में उस भाषा के शब्दों, सांस्कृतिक समझ व वह भाषा जिस भी सभ्यता या समाज की है उसके आधार पर जितनी समृद्ध होती है वह सब व्यक्ति की मेमोरी में स्टोर होता चलता है। हम यह कह सकते है भाषा का एक केंद्र मनुष्य के ब्रेन में विकसित होता चलता है। यदि बच्चें के संदर्भ में बात करें तो यदि बच्चे को एक से अधिक भाषाओं का एक्सपोजर मिलता है तब हम क्या कह सकते है बच्चें का ब्रेन अलग अलग भाषाओं की अपनी अलग अलग समृद्धियों के साथ विकसित होगा? इसमें हम कुछ ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण भी ले सकते है जिनका एक्सपोजर कई भाषाओं में हुआ। यहाँ मैं भाषा का मतलब बोलने और समझने से लेकर मुख्य चल रहा हूँ।
इसमें गुरु नानक, कबीर, बुद्ध, गांधी, आंबेडकर, टैगोर आदि के साथ इस प्रकार की समानताएं पाई जा सकती है। नानक ने तो अपनी अलग ही भाषा विकसित कर ली, कबीर के बोले गए को भी सधुक्कड़ी भाषा का दर्जा प्राप्त है।
लेकिन जब व्यक्ति एक उम्र के बाद दूसरी भाषा को समझने में जाता है तब वह अपनी मातृ भाषा का प्रयोग दूसरी भाषा को समझने में करता है जिसके लिए वह सोचने समझने या सोच समझ कर बोलने में अनुवाद का प्रयोग कर सकते है यहाँ हम क्या यह कह सकते है कि भाषा का केंद्र ब्रेन की मेमोरी में इस बार अलग-अलग न होकर एक जगह पर एक दूसरे से कनेक्ट होते हुए समृद्ध हो रहे है। ऐसा भी हो सकता है समय के साथ साथ दोनों भाषाओं के आपस में एक दूसरे के प्रयोग की गति इतनी तेज हो जाए कि हमें महसूस ही न हो कि दोनों एक दूसरे पर निर्भर है या उनके केंद्र भी अलग-अलग अपने स्वरूप में आ जाए?
- जब हम एक भाषा से दूसरी भाषा सीखने पर या दूसरे भाषाई क्षेत्र में जाते है तो हमारा ज्यादा जोर सांस्कृतिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक चेतना आदि के आदान प्रदान एक दूसरे के विचारों को समग्र करने के इरादे से होता है, साथ के साथ भाषा का प्रयोग व्यापारिक आदान प्रदान को बढ़ाने और आसान करने के लिए भी होता है। लेकिन यदि गौर करे तो प्रत्येक भू-भाग में भिन्न चेतनाओं जिसमें विज्ञान, चिंतन, साहित्य आदि शामिल है के विकास की गति अलग-अलग है।
दूसरा जो मुख्य संशय भाषा को लेकर है वह यह कि भाषा नामक टूल के भिन्न उपयोग तो हमने देखे है लेकिन भाषा का प्रयोग क्या दीर्घकालिक युद्ध के हथियार की तरह भी प्रयोग हो सकता है?
भाषा को लेकर इस तरह की आशंका के पीछे जो कारण है वह यह है कि किसी भू भाग में रहने वाले निवासियों की मानसिक विकास वहां के विज्ञान, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, व्यवस्था आदि के समृद्ध होने से है और यहीं भाषा की समृद्धि भी कही जा सकती। लेकिन यदि इसी भू भाग के लोगो को जिस भाषा के साथ इनका मस्तिष्क आज तक विकास कर रहा था भिन्न तरीको से दूसरी एक दम अलग भाषा की तरफ मोड़ दिया जाये, शिक्षा को उस भाषा से जोड़ दिया जाए तब इस सब का ब्रेन पर और इन लोगों के भिन्न चीजो के विकास पर किस तरह असर पड़ेंगे।
यदि दूसरी भाषा पर मैकेनिकल मूवमेंट हो भी जाता है तब भी क्या सोचने समझने की शक्ति पहले ही की तरह काम कर पायेगी। क्या उनकी अपनी भाषा जो उनके जीवन में होते आए भिन्न अनुभवों और प्रयोगों के साथ धीमी गति से भाषा को विकसित करते हुए आगे बढ़ रही थी वह थोपे हुए अनुभवों और औजारों के साथ वैसे ही हो पायेगी जैसा कि थोपी गई भाषा का ज्ञान भिन्न कारणों से उनसे कुछ चरणों में आगे चला गया है या यह फिर दूसरी भाषाई लोगो और उनके विकास आदि के केवल पिछलग्गू या अनुवादक बनकर रह जायेंगे जिससे ब्रेन की वास्तविक समझ और क्रमिक विकास मौलिक न हो कर उधार की कुछ प्रतिक्रियाएं होंगी?
इस बात को इस उदाहरण से और स्पष्ट करना चाहूँगा कि ऐसी सभ्यता जिसमें अभी पहिये का आविष्कार हुआ है उसके ज्ञान के आदान प्रदान का समय चल रहा है वहाँ पर मोटर इंजन के प्रयोग को अस्तित्व में ला दिया जाए जिसके आविष्कार का कारण इस सभ्यता में हो सकता है कोई गलत आर्थिक निर्णय लेने वाला मोड़ भी रहा हो जब इस इंजन सभ्यता को पहिया सभ्यता पर थोप दिया जाए और कुछ सालों के प्रयत्न से उन्हें इंजन बनाने ठीक करने में दक्ष कर दिया जाए तब क्या यह मस्तिष्क का विकास है या वैसा ही है जैसे एक बैल को गाड़ी में जोड़ दिया जाए तो खेत तक गाड़ी को पहुंचा देता है।
ऐसा ही असर क्या भाषाओ के भी पड़ सकते है? या फिर हो सकता है इस सभ्यता का मस्तिष्क इंजन के विकास तरफ न हो कर कुछ एक दम भिन्न पहलुओं की ओर होता? ऐसा ही असर के प्रभाव को जीवन मूल्यों, अनुभवों पर भी देखा जा सकता है क्या ?
भाषा सीमा को देखना पहचानना –
यह हम सब अभी तक चर्चा कर चुके है कि भाषा के द्वारा हम सोचने विचारने में मदद मिलती है, भाषा के साथ हमारे पास बहुत सारे शब्द है उनके अपने अंतर्निहित संजाल है, भाषा द्वारा हम लिख कर बोल कर अपने आपको अभिव्यक्त कर पाते है लेकिन क्या भाषा भी हमें नियंत्रित करने लगती है? इस बात को मूर्त और अमूर्त दोनों ही संदर्भ में देखा जा सकता है – हमें जैसे ही कोई व्यक्ति वस्तु दिखाई पड़ता है हम तुरंत उस वस्तु का नामकरण कर देते है या लेबल लगा देते है या फिर मेमोरी में दर्ज पहले से कोई नामकरण उठाते है और उसी लेबल के अनुसार हम संसार के संपर्क में आते है। प्रश्न यहाँ पर ये है कि क्या हम उस व्यक्ति को सीधा देख पा रहे है हम केवल भाषाई नामकरण के संपर्क में है। जब पेड़, पहाड़ आदि कुछ बोल रहे है तब हमारा मतलब क्या किन्हीं जीवित वस्तुओं से है या उक्त लेबल की कल्पनाएं जो हमारे मस्तिष्क में है उनसे कहीं है। हमारी कल्पना में जो पेड़ है उसकी जो कुछ निश्चित परिभाषा है क्या पेड़ बस एक वहीं एक चीज है या उससे परे भी कुछ है। क्या भाषा हमें यहाँ सीखने समझने और वास्तविक संपर्क में आने को सीमित कर रही है? इसे और सरल करते है जब हम किसी व्यक्ति के संपर्क में आते है तब उस व्यक्ति को लेकर हम अपने मस्तिष्क में कुछ लेबल सेट करते जाते है या बहुत सीमित चीजों के आधार पर उस व्यक्ति की एक छवि हम बना लेते है और जब भी हम उस व्यक्ति के संपर्क में आते है हमारे पास पहले से ही उस व्यक्ति की कुछ छवियाँ है और उन छवियों के आधार पर ही हम उस व्यक्ति से मिल रहे होते है। तब भी हम क्या व्यक्तियों के संपर्क में आने के बजाय भाषा द्वारा निर्मित एक कल्पनाओं का जाल है, हम केवल उसी तक तो सीमित नहीं रह जा रहे और कुछ भी नूतन तक हम पहुँच ही नहीं पा रहें।
यदि हम भाषाई कल्पनाओं के अमूर्त में आगे बढ़े तो उसके हमारे जीवन पर जो प्रभाव नजर आते है वह कम से कम मेरे लिए तो चौकानें वाले है हमारे पास युद्ध को लेकर कुछ भाषाई नामकरण है जिसमें गर्व, शौर्य, वीरगति, भागना कायरता है, सर कटा सकते है लेकिन झुका सकते नहीं आदि जैसे शब्दों की श्रृंखला साथ में लिए चलते है और खुद इन्हीं शब्दों के आधार पर इन परिस्थितियों में ऐक्ट कर रहे होते है और भावों को दिए गए कुछ शब्दों के आधार पर ही महसूस कर रहें होते है। जब हम शब्द सुनते है हिन्दू या मुस्लिम तब इन शब्दों के साथ जुड़ा पूरा एक डाटा हमारे पास मौजूद है जिसके लिए पहले से ही एक खांचा तैयार है जो सुनने वाले के अपने भाषाई डेटा और उस डेटा के आपसी सम्प्रेषण पर निर्भर है कि इस प्रकार के शब्द उसके अंदर किस प्रकार की मानसिक तरंगे उत्पन्न कर उस पर कार्य करवायेंगे। ऐसे ही बहुत से शब्द हो सकते जिसमें प्यार, लोकतंत्र, साम्यवाद, समाजवाद, गाँधीवाद जैसे शब्द भी है। हम या हमारा जीवन क्या इन्हें वाकई छू कर भी निकल पा रहे है या फिर इन शब्दों से निर्मित हमारी कुछ परिकल्पनाएं ही है। इसे मैं कभी-कभी कल्पनाओं का रोमांस भी बोल देता हूँ। जब हम प्रेम शब्द प्रयोग में लाते है तो इस इंजन के साथ धोखा, विश्वास, वफ़ादारी, बेवफाई, नफ़रत, सम्मान आदि डिब्बे भी पीछे पीछे जाने-अनजाने दौड़ते है तो क्या प्रेम क्या बस इतनी ही कोई सीमित चीज है?
I love you, I hate you, I am proud to be Hindu, I am proud to be Muslim. क्या इन शब्दों में या इनसे उत्पन्न भावों में कोई अंतर है! (यह हम स्वयं देखने का प्रयास करे कि परस्पर विरोधी शब्द भी किस प्रकार एक हो सकते है ) जब हम बोलते है I love this country, I hate that country क्या तब भाषा यहाँ भी दोनों वाक्यों में एक डिवीजन का काम नहीं कर रही है?
जब हम भाव, आवेग और संवेग की बात करते है तब भी हमारे पास कुछ शब्द होते जैसे की गुस्सा, ईर्ष्या, प्रेम, नफरत, सुख, दुख आदि। किसी विशेष परिस्थिति के कारण जो भाव हमने महसूस किया और चूंकि आस पास के समाज, फिल्मों, कुछ पढ़कर हमें पता है कि भाव का यह लेबल है और फिर उस लेबल के अनुसार यह-यह व्यवहार करना है। क्या हम यह दावा कर सकते है कि जो हम किसी समय महसूस कर रहे होते है और तुरंत उस भाव का नामकरण देकर हमने अपने आप को एक स्वचालित मोड में डाल दिया है यह वहीं भाव है? क्या हमें वाकई पता है जिसे हम गुस्सा, प्रेम, ईर्ष्या आदि बोल रहे है वो यहीं है या कुछ और?
जब हम शिक्षा बोलते है है तब भी हमारे पास कुछ ऐसे ही पैटर्न का सेट है जिसे हम अनुसरण करते जाते है जिसमें कंपटीशन, एग्जाम, नंबर, रिपोर्ट कार्ड, नौकरी, शादी आदि जैसी चीजें है।
तब भाषा का अंतर्जाल क्या हममें एक डिवीजन और भिन्न विरोधाभाष पैदा करके अगर उस पर ध्यान न दिया जाए तो क्या हमारे मस्तिष्क और कल्पना को बहुत सीमित नहीं कर दे रहा है? यदि हाँ तो शिक्षा में भाषा सिखाने और उसके उपयोग के साथ और किन बातों पर ध्यान देना होगा।
कहानियाँ –
आज की बातचीत में मैं जो भाषा का संबंध जीवन मूल्यों से कर रहा था उससे मेरा क्या तात्पर्य था, मैं वह स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ-
ऊपर कही बातों में आगे बढ़े तो भाषा ने जो मुख्य काम मनुष्यों के बीच किया है वो है कहानियाँ गढ़ना न केवल उन्हें गढ़ना बल्कि उन पर विश्वास करना, न केवल उन पर विश्वास करना, उन कहानियों का हमारे जीवन में उतर जाना। मनुष्य अपनी अब तक की यात्रा में अनेकों अनेक कहानियाँ गढ़ चुका है और उनके अनुसार जी चुका है। इन कहानियों के कुछ उद्धहरण हम देखते है मुख्य कहानियाँ जो हमारे बीच प्रचलित है वो है धर्म, जाति, देश, मुद्रा, भिन्न पूजा स्थल, परिवार, प्रेम संबंध, मित्रता आदि। कुछ और कहानियाँ भी है जो इन्हीं कहानियों के हिसाब से बहती है वो है की अनुभूति हमें कराती है।
जब भी मानव सभ्यता ने कोई नया मोड़ लिया है, उसके सामने एक कहानी थी जिस पर उसने स्वयं से विश्वास किया हो या जबरदस्ती उन कहानियों पर भिन्न तरीकों से विश्वास करने के लिए बाध्य किया गया हो।
हर एक कहानी मनुष्य अपने अंदर उत्पन्न काम, क्रोध, लालच, आत्मसम्मान, गर्व, सहजता, कटुता, जैसे आवेगों को क्या नाम देगा वो भाव उसे किन एक्शन, और उन एक्शन से किन मानसिक अवस्थाओं या विचारों की उत्पत्ति होगी, यह सब उस कहानी में और कथाकार की जानी अनजानी मंशाओं में छिपा होता है। जब कथाकार मनुस्मृति लिखता है तब उसमें विश्वास करने वाली महिला कहानी के पिता, पति, भाई जैसे पात्रों के हिसाब से ही चलेगी और यदि वह कुछ देर को कोई स्व रचित छोटी कहानी जी भी लेती है लेकिन मुख्य कहानी में विश्वास वैसा ही तब भी मुख्य कहानी उसे अपराधबोध, पाप पुण्य जैसे एल्गोरिदम के जरिए अपने घेरे में ले लेगी।
एक शूद्र के लिए कहानी की भूमिकाएं उससे उत्पन्न भाव, जीवन मूल्य अलग है और एक ब्राह्मण, या क्षत्रिय के लिए यहीं सब अलग। लेकिन सभी एक ही कहानी की भूमिका में बंधे है। और यदि कोई भी अपनी भूमिका से अलग हटता है तो कहानी के सभी पात्रों की भूमिकाएं टूटती है इसलिए एक पिता के लिए अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनने पर अपनी पुत्री की हत्या करना आसान लगता है बजाय कहानी में अपनी भूमिका के अविश्वास के।
मोहम्मद साहब जब इस्लाम की कहानी रचते है तब के समयकाल के हिसाब से वह कहानी नए मूल्यों को जन्म देती है मसलन अनेकों महिलाओं को पशुओ की भाति गुलाम रखने से 4 पत्नी रखने की कहानी पहले वाली कहानी की तुलना में मानवीय है। लेकिन यह कहानी मनुष्य उस समय जो दूसरी कहानी जी रहा था उसके आस पास की ही कहानी है एवं नई कहानी में कुछ ऐसी परिकल्पनाओं का आश्वासन भी है जो उसे सहज उपलब्ध नहीं इसलिए वह जल्द ही इस नई कहानी में विश्वास कर लेता है और उसके मूल्य, भाव, आवेग, संवेग अब नई कहानी के हिसाब से स्वचलित होते जाते है।
ऐसी कहानियाँ भी हो सकती जो मनुष्य के स्वविवेक से गढ़ी गई हो लेकिन आगे चलकर कहानी और उसके पात्रों की भूमिकाएं ही प्रचलन में रह गई हो और उन कहानियों का आधार मनुष्य की समझ से दूर चला गया हो।
ऐसी ही एक कहानी मुद्रा की है जिसमें एक दूसरे की विपरीत कहानियों में विश्वास करने वाले लोग भी एक साथ विश्वास कर रहे है। ऐसी ही कहानी प्रेम को लेकर है, किसी धार्मिक स्थल मंदिर, मत आदि को लेकर है लेकिन अगर कहानी अंत में शांति, सामंजस्य, एक जुटता, के बजाय संघर्ष, लड़ाइयाँ, वैचारिक दवंद की ओर लेकर जा रही हो तब क्या वह कहानी चाहे किसी धर्म पर आधारित हो, प्रेम पर आधारित हो या फिर अर्थववस्था पर आधारित हो वह कहानी क्या पूर्ण है! सच्ची है?
कई बार कहानी की प्रतिक्रिया में भी एक कहानी जन्म ले लेती है लेकिन पात्रों की भूमिकाओं के फेरबदल में कहानी वहीं होती है।
जब हम भाषा पर काम कर रहे है तब एक शिक्षक क्या स्वयं की एवं बच्चों की मदद अलग अलग कहानियों, कथाकारों को जैसे है बिल्कुल वैसे ही समझने में मदद, उनसे पूरी तरह से बाहर आने की कल्पना शक्ति और क्या ऐसी कल्पना का निर्माण करने की क्षमता विकसित कर सकते है जो लचीली हो और वास्तविक, सार्वभौमिक शांति, सहजता वाले मूल्यों की तरफ हमारे भावों को मोड़ती हो?
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.