आए दिन हम सुनते रहते है की कोर्पोरेट किसानों की जमीन हथियाती जा रही है इसके आगे भी यह सुनते है कि सरकार जोर जबर्दस्ती पूंजीपतियों को किसान की जमीनों पर कब्जा दिलवा रही है। इसके लिए हम दूर दराज के क्षेत्र, जंगलों आदि के बारे में की-बोर्ड पर बैठे तुक्के मारते रहते है क्योकि पुलिस फौजों के फोटो गाहे बगाहे हमारे सामने को निकलते रहते है भले वह फोटों प्रायोजित होते हो या किसी अन्य प्रयोजन के लिए इस्तेमाल किए जाते हो। हमने तो सरकार पुलिस फ़ौज को कोसते हुए किसानों के समर्थन में लेख दे मारा है बस हो गया तथ्यों तक जाने में समय ऊर्जा भी खर्च होती है और कहानी भी हमारी समझ से अलहदा मिल सकती है तो आज की पत्रकारिता जो मिनट दर मिनट बदलते ट्रेंडिंग मुद्दों पर खड़ी है इन सब पर कौन सर खपाए।
फिलहाल यह लेख न किसानों की जमीन पर कब्जा करते जा रहे कोर्पोरेट के समर्थन में है , न ही किसी पुलिस या फ़ौज के किसी उत्पीड़न के मामले को जस्टिफाई करने के लिए इसलिए विनती है कि किसी भी टिका टिप्पणी से पहले लेख पूरा पढ़ा जाए।
किसान किस तरह खेती बाड़ी से दूर होते हुए अपने खेतों से भी दूर होता जा रहा है। इसके लिए बस्तर के किसी आदिवासी गाँव, राजस्थान, मध्य प्रदेश के दूर दराज के गाँवो तक पहुँचने की जरुरत नहीं है जहाँ “विकास” नामक सदी का सबसे बड़ा मानवीय और प्राकृतिक करप्शन अपने बिलकुल शुरुआती दौर में पैर जमा रहा है। विकास का मतलब अन्यत्र विश्व में कुछ भी होता हो लेकिन हमारे समाज में विकास का इससे इतर मतलब कम से कम मुझे तो नहीं ही दिखाई पड़ता है!
यहाँ मैं बात करना चाहता हूँ उन गांवो के बदलाव की जो छोटे बड़े शहरों से बहुत दूर नहीं थे लेकिन शहरी प्रभाव से लगभग लगभग अछूते थे , देश की राजधानी दिल्ली के दो सौ किलोमीटर के दायरे में आज भी सैकड़ो गाँव ऐसे मिल जायेंगे जो शहरों से लगभग पूरी तरह कटे हुए है जहाँ शहरों से जोडती हुई सड़कें या तो दो एक साल पुरानी है या अभी तक बनी ही नहीं है। कितने ही गाँव दो छोटी छोटी नदियों के किनारे बसे हुए है जिनमें बरसात में पानी आ जाने के कारण बाहरी क्षेत्रों से सम्बन्ध बिलकुल कट जाता था , जहाँ अभी तक यातायात के साधन के नाम पर केवल रेलवे की दो चार पसेंजेर ट्रेनों का सहारा है। जो इन ग्रामीण क्षेत्रों पर बने हाल्ट पर मिनट दो मिनट के लिए रूकती है. आदमी तो आपने आने जाने का बंदोबस्त कर भी ले लेकिन कितनी औरते और बच्चे अपनी बीमारी और जरूरतों के लिए भी बीस किलोमीटर की दूरी आज भी तय करना बहुत ही टेढ़े कामों में से एक है । आज भी इन ग्रामीण क्षेत्रों में दो चार आदमी औरत ऐसे मिल जाते है जो कभी शहर नहीं गए या केवल मज़बूरी में गए हुए होते है।
इन सब के बाद भी ये गाँव आत्म निर्भर थे, शांति से जीवन व्यतीत करते थे , होड़, हबड़-तबड़ से दूर थे। जीवन यापन की बेसिक जरूरतों अन्न, सब्जी, दाल एवं अन्य खाद्यान्नो, कपड़ा, मकान आदि को पूरा करते हुए को भी धीमी गति से ही सही लेकिन मजबूत स्थिति की ओर बढ़ रहे थे। नदियों, तालाबों, पशुओं, पेड़ पौधे से निर्भरता और जरूरतों का जीता-जागता सम्बन्ध बना हुआ था। गाँव का आदमी आज भी जल्दी से इन सब को नुकसान नहीं पहुंचाता बल्कि प्रकृति का पोषण ही करता है। भारत के गाँवो की सबसे बड़ी ताकत यहीं रही है की उनकी निर्भरता बाजार पर न के बराबर रही है जबकि बाजार उन पर आज भी पूरी तरह निर्भर है। हम भारतीय गांवों के साथ जो सबसे बुरा कर सकते थे वह यहीं था की गांवों की आत्मनिर्भरता को ज्यादा से ज्यादा कमजोर किया जाए. जिसके लिए हम सब ने पिछले तीन दशक भरपूर प्रयास किया है। हमनें कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है की भारत के गाँव-किसान बाजार की मांग के हिसाब चलने लग जाए, बाजार का उन पर पूरी तरह नियन्त्रण हो जाए। इस बात की शुरुआत को इस तरह से समझ सकते है खेतों के पानी देने के लिए रहट का इस्तेमाल होता था, तालाबों में भरपूर पानी रहता था, जुताई के लिए हल बैलों का प्रयोग होता था, रासायनिक जहर की उसे कोई जानकारी नहीं थी। धरती अपनी शक्ति में स्वयं वृद्धि करे इसके लिए कुछ एक सालों में जमीन को बिना फसल लिए कुछ समय के लिए खाली छोड़ा जाता था। इन सब के लिए किसान को बाजार की कितनी जरूरत पड़ने वाली थी या नहीं पड़ने वाली थी यह हम आसानी से देख सकते है। किसान का उत्पादन के लिए अलग से कुछ खर्चा था ही नहीं सब कुछ प्रकृति , पशुओ, गाँव में रहने वाले सभी व्यक्तियों का सामूहिकता सहजता से बढ़ते कदम थे जो न केवल उन्हें मजबूत कर रहे थे बल्कि पूरी धरा को एक कड़ी में जोड़ते हुए मजबूत कर रहे थे।
हल-बैल बनाम ट्रैक्टर
यह हम थे जिसने यह मानसिकता बनाई हल बैल चलाने वाले किसान को हीनता या तरस खाने वाली की दृष्टि से देखा। जबकि हीनता से हमारी दृष्टि को देखा जाना चाहिए था। हम घंटो मोबाइल चला सकते है, टीवी देख सकते है , बे-सिर पैर की बहसों में घंटो ऊर्जा खर्च कर सकते है। हम यह भी नहीं जानते की हमारी थाली में जो रोटी रखी है वह लूट कर खाई जा रही रोटी ही हो। लेकिन हम खेतीं को आधुनिक बनाने के व्याख्यान दे मारेंगे। हल बैल किसान के घर की चीज है जो उसे सहज उपलब्ध रहती है, फसल, पशुओं के चक्र में आपसी जरूरते, रख रखाव जरूरत से ज्यादा पूरी होती रहती है जबकि ट्रैक्टर बाहरी चीज है जिसके लिए उसे बड़ी पूंजी लोन आदि जुटाने पड़ते है। इसके बाद उसके रख-रखाव चलाने के भारी खर्चे अलग से। किसान खर्चा उठा सकता है उसके लिए कोई बड़ी बात भी नहीं होती है। लेकिन जिस दलदल में हम फंसे थे हमने किसान को भी उसी दलदल में धकेल दिया। हल बैल की जुताई धरती को उत्तेजित नहीं करती है, धरती उर्वरक क्षमता को पोषित करते केंचुओं एवं अन्य कीड़ो मकोड़ों आदि को नहीं मारती है जबकि ट्रैक्टर की जुताई खेत की क्षमता को कम करती जाती है। चूँकि अब हल बैल से खेती करना शर्म की बात है किसान अपने सहज जीवन और जमीन का ही दुश्मन बन बैठा.
प्राकृतिक खाद बनाम रासायनिक खाद
प्राकृतिक खाद भी किसान को सहजता से उपलब्ध है जो खेती किसानी फसलों को बिना किसी नुकसान के भरपूर पोषण देता है। लेकिन बाजार की मांग को पूरा करने में वह रासायनिक खादों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में करने लगा। रासायनिक खाद जमीन की उर्वरक क्षमता को तेजी से बढाते है, एक के बाद एक तेजी से ज्यादा ज्यादा फसल लेनी है क्योकिं किसान तो पूंजी बनाने के लिए भी फसल पर ही निर्भर है। इस चक्कर में ऐसा समय भी दूर नहीं जब धरती किसानों का साथ छोड़ देती है हमने गाँव-किसान को जहर की खेती करने मजबूर कर दिया है की वह अपना स्तर किसी भी तरीके चकाचौंध के ढोंग की तरफ धकेले वरना हेय दृष्टि से देखे जाने और पिछड़ा महसूस करने के लिए तैयार रहे।
रहट-तालाब-कुएं बनाम नलकूप-सब्मर्सिबल
रहट
नब्बे के दशक तक रहट-तालाब-कुएं गाँव खेती की लाइफ-लाइन हुआ करते थे। तालाब या कुओं से आप जबर्दश्ती पानी निकलते नहीं रह सकते। कुओं से पानी निकालने के लिए या तालाबों से पानी के लिए धरती के नीचे का जलस्तर या तो बहुत अच्छी अवस्था में होना चाहिए या फिर बारिश आदि के पानी को इकठ्ठा करने उसे साफ़ बनाए रखने के लिए, बर्बाद न करने के लिए सामूहिक सजगता अवश्य होनी चाहिए। किसानों द्वारा खेतों में प्रयोग किए जाने वाले नलकूपों से पानी तो खेती के लिए उतना ही निकाला जाता है जितना रहट आदि के माध्यम से निकाला जाता है। अंतर आया है तो गति का, निर्भरता का एवं उसके जल के मुख्य स्रोतों से दूर जाने का। अंतर केवल गति या श्रम की कमी का होता तब कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन भारतीय किसान रहट द्वारा पानी निकालने के लिए किसी बाह्य कारक पर निर्भर नहीं था। आज वह बिजली और महंगे तेल पर पूरी तरह निर्भर है, साथ के साथ जो सबसे बुरा हो सकता था वह यह था किसान और गाँवो का भी सबसे आखिर में ही सही लेकिन तालाबों और कुओं से सम्पर्क टूटता चला गया। इतना भी जरुरी नहीं समझा गया की लोगों को इतना तो जागरूक किया जाए कि कम से कम जानकारी में तो इतना पता हो की पृथ्वी के नीचे अथाह जल भंडार नहीं है। रही सही कसर आज घर घर में सब्मर्सिबल लगवा कर पूरी की जा रही है। यह सब क्या षड्यंत्र का हिस्सा नहीं है. जब प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किए जाने का काम इतने बड़े पैमाने पर हो सकता है तो किसान के लिए वाटर हार्वेस्टिंग जैसे प्रोग्राम भी बड़े स्तर पर स्थापित किए जा सकते थे, वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की ओर बढा जा सकता था लेकिन जब सोच समझ ही रखा है की किसानों को आत्मनिर्भर बनाना पूंजीवाद पर चोट करेगा तो क्यों उसके लिए प्रयास किए जाए।
चलते चलते
यह हम थे जिसने मानसिकता बनाई की शहर में रहना ही आपको महान, बुद्धिमान बना देता है और गाँव में रहने वाला व्यक्ति मूर्ख होता है। यह हम थे जिसने गाँव किसान को लगातर हीन मानते हुए यह दिखाया की भोग करना, कुछ अधिकार प्राप्त हो जाए तो केवल अपने भोग करने के लिए उनका जितना हो सकता है दुरूपयोग करना और इन दुरुपयोगों में भी अपने आप को महान साबित किए रहना। यह हम थे जिन्होंने भोग, ढोंग और धूर्त्तता को आदर्श के तौर पर स्थापित किया। हमने ही यह स्थापित किया कि महंगी डिग्री हासिल कर के कुछ उत्पाद बेच लेना , नौकरी कर लेना, मानसिक गुलाम हो जाना महानता है और जो खेत घर परिवार संभाले हुए है जो पूरी अर्थव्यवस्था में वास्तविक योगदान देते है वह सब हमसे कम समझ रखते है।
मुद्रा में ही बात कर ले तो हम आज तक किसान के दैनिक श्रम की कीमत नहीं तय कर पाए , हम किसान को यह अधिकार नहीं दे पाए की वह अपनी फसल की कीमत क्या रखेगा, हम यह तय नहीं कर पाए यह किसान का अधिकार है की वह अपनी फसल को मर्जी जिस बाजार में बेचे, वहीँ किसान अपनी ही चीजे बाजार से कई गुना दामों पर खरीदने को मजबूर है। हमने विकल्प ही क्या छोड़ा है सिवा भूखे मरने या मुद्रा के बदले जमीन बदलने के और हम बात करते है किसान को सिखाने की, उसे आधुनिक बनाने की ; कुछ बेसिक शर्म लिहाज तो हम में भी होना ही चाहिए। किसान बाजार के खेलों में फंस कर जमीन बेचता है, जिसे बाजार की और धकेलने का काम हम आप लगातार अपने दैनिक जीवन में करते है। जमीन की लड़ाई तो रह ही नहीं जाती है लड़ाई तो फिर मुआवजों की होती है हम यह बात समझते ही नहीं है कि दुनिया का कोई भी मुआवजा उस जमीन के बराबर हो ही नहीं सकता। पूंजी अपने आप को फिर से बढ़ा लेती है, जमीन बेचने वाला किसान उस पूंजी का कितना भी सही इस्तेमाल कर ले लेकिन उतनी जमीन के उत्पादन की कीमत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कही न कही कोई किसान ही चुकाता है। हमने हर उस बात को उच्च मापदंडो पर निर्धारित किया जो धूर्तता, ढोंग, परजीविता पर आधारित थी जिन पर किसी भी सभ्य समाज के मनुष्य को शर्म आनी चाहिए थी। जो शहर गांवों के रहमों-करम पर फले फूले हो, लूट खसोट को अपने जीवन का हिस्सा बना चुके हो वह एक भी व्यक्ति को वास्तव में कैसे आत्मनिर्भर बना सकते है, हाँ अगर आप कम से कम मुद्रा पर अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों पर सरल सम्पन्न जीवन व्यतीत करते लोगों के बजाय धूर्तता के साथ बनाई गयी परजीवी व्यवस्था, किसी भी तरीके से इकठ्ठा की गई मुद्रा पर आधारित मापदंडो को जो गांवों की शक्ति पर भोग करती है को आत्मनिर्भरता, ईमानदारी, चेतना के विकास में सहायक तत्व, महानता बोलते हो तो अलग बात है।