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किसानों, मजदूरों से चुनकर उन्हें आपस में ही लड़ाते, मुकदमेबाजी करवाते रहना ही सेना और पुलिस है।
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पहले डर को ईश्वर का रूप दिया गया , अपने डर को समझने के बजाये ईश्वर रूपी पलायन कर लिया , उसके बाद जो खुद नहीं भोग सकते वो सारे भोग ईश्वर और अवतारीय कल्पना में जिए जाते है। मेहनत नहीं करनी, बैठे बिठाये आनन्दम, वैभव, कोई भी मनमर्जी, अप्सराएं, डांस पार्टी इससे अलग ईश्वर क्या है! फिर यही सब उससे माँगा जाता रहा है।
घोर नास्तिकपने में जीते हुए खुद को धार्मिक और आस्तिक समझते है। जहां मन ने कुछ टारगेट फिक्स कर लिया, भिखमंगपन पैदा कर लिया अगर उस पर गौर नहीं हो पाई वही स्वयं से दूरी बन जाती है।
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भारतीय जन हमेशा से अवतार गढ़ता आया, उन्हें पूजता आया और अंत में खुद को ठगा महसूस करता आया। कभी दैवीय अवतार कभी राजनैतिक अवतार, कभी विकास पुरुष अवतार, कभी ईमानदारी के अवतार। बार बार ठगे जाने के बाद भी आने वाली पीढ़ियों में अवतारों के लिए वही बीज रोपित करता आया जिनसे खुद चोट खायी।
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अकसर इस तरह के ज्ञान खूब पेले जाते है कि सांसदों विधायकों की सुविधाओं, वेतन में कमी होनी चाहिए। जबकि प्रशासनिक अधिकारियों को बड़ा देशभक्त ईमानदार बना के पेश किया जाता रहता है। जबकि सुविधाओं, वेतन और अधिकारों के मामले में ये सांसद, विधायक से ऊपर ही होते है। अपने काम के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही आज भी न के बराबर ही बनी हुई है।
अब एक अपना प्रतिनिधित्व जिसे हमने खुद चुना अगर वह भृष्ट है तब वह प्रशाशनिक अधिकारियों की मदद से लूटमार ही करेगा।
लेकिन कोई नेता ईमानदार है, तब भी उसे अधिकार नहीं है, प्रशासनिक अधिकारी उसे अपना काम करने नहीं देंगे।
दोनों ही मामलों में जनता प्रतिनिधित्व असफल दीखता है।
ये जिम्मेदारी, दायित्व सीधे सीधे जनता का है कि वह ईमानदार लोगों को आगे लाये उन्हें चुन कर आगे भेजे, जनता का शासन है तो जनता के प्रतिनिधित्व को ही अधिकार ज्यादा होने चाहिए। नेताओं को गाली देकर हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते जो लोकतंत्र में हमे मिली हुई है। लेकिन इसके लिए हमे कम से कम न्यूनतम सामाजिक ईमानदारी, समझ अपने अंदर भी पैदा करनी होगी। अवतारों से मुक्त होना होगा।
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बिना समाज की कमियों पर प्रकाश डाले जब साहित्य या सिनेमा वर्तमान समाज को ग्लोरिफाइड करते है, वही साहित्य और सिनेमा उसी समाज के लिए उलट कर वहीं माइंडसेट तैयार करने लग जाता है।
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डार्विन थ्योरी को लेकर वैज्ञानिकों में मतभेद है लेकिन सभी संगठित धर्म उस पर एक मत है।
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जब तुम सोचते हो की मजदूर की आय बढ़ गयी तो मजदूरी कौन करेगा , जीवन स्तर सुधर गया तो तुम्हारी बराबरी करने लगेगा, ले देकर सरकार की मदद से दो कमरों का पक्का मकान बन गया तो दो मंजिला घर वाले उसमें भी जलन का अनुभव कर लेते है कोशिश भी यही रहती है की ऐसा न हो , फिर जो तुमसे ऊपर है वह ऐसे ही जतन क्यूँ न करते होंगे !
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.