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एक व्यक्ति पहाड़ तोड़ने लगता हैं, जिस पहाड़ में रास्ता निकालने के लिए सारे लोगो को मशीनरी के साथ महीने दो महीने लगते उसके लिए एक व्यक्ति को अपनी सारी जिंदगी लगानी पड़ी । उसमें भी जिन लोगों की भलाई के लिए काम करने की ठानी उनकी ही उपेक्षा और मजाक का पात्र बना और जब पहाड़ से रास्ता निकाल दिये तब कहा जा रहा है की पत्नी के लिए किया। अगर वह व्यक्ति पत्नी तक ही सीमित होता तो जो व्यक्ति पहाड़ तोड़ सकता है वो अपनी पत्नी को साथ लेकर कहीं अच्छी जगह भी बस सकता था लेकिन उस व्यक्ति में प्रेम बहुत गहराई तक था उसने अपमान सहते हुए भी अपने पूरे समाज के बारे में सोचा और अपनी सोच को साकार कर के दिखाया।
शायद हम प्रेम और फक्कड़पन को समझना ही नहीं चाहते।


किसी से भी पूछो की जिन्दगी में क्या चाहिए सपने क्या है जवाब आता हैं अच्छी नौकरी हो, पैसा हो, बड़ा घर और सारी सुख सुविधाएं हो, जो कि बहुत सारे लोगों के पास पहले से भी होती हैं और फिर अपने आप को मारते हुए लग जाते हैं इस दिखावे को पूरा करने में।
मेरा प्रश्न ये हैं की इतने सारे लोग एक जैसे सपने कैसे देख सकते हैं,ये सोच तो मौलिक नहीं हो सकती। ऐसा तो तभी सम्भव है जैसे किसी और ने अपनी बाते हमारे दिमाग में भरी हो जैसे की ‘बाजार’ ?


जब तक इंजेक्शन लगा कर कचरा खा कर गाय दूध दे रही हैं तब तक माता है,

जमीन जब तक रसायनिक उर्वरकों से पैदावार करते करते नहीं थक जाती तब तक माता है,
एक स्त्री जब तक तुम्हारे खाना बनाने,कपड़े धोने, तुम्हारी छोटी मोटी फरमाइशों को पूरी करने में लगी है माता हैं।
देखा जाये तो हमारे हाथ लगी कोई भी चीज तब तक पूजनीय है, प्यारी है जब तक हम पूरी असंवेदनशीलता के साथ भोग करते रह सकते हैं चाहे वो नदियाँ हो, पेड़ हो, पहाड़ हो चाहे कोई रिश्ता हो।

4  
हम जाति को नहीं मानते हम तो छुआछूत को नहीं मानते . तुम नहीं मानते क्यूकी तुम आँखे बंद कर के जिये हो , तुम्हे पता ही नहीं है भेदभाव क्या है, तुम्हे पता ही नहीं है तुम्हारी जाति की वजह से तुम्हे कितना लाभ मिला है. जिस देश में राजनीति, नौकरशाही , शादी, सामाजिक स्थिति, सब कुछ जाति के आधार पर तय होती है तुम वहां कहते हो की हम जाति को नहीं मानते . तुम्हे तुम्हारी जाति की वजह से कुछ झेलना ही नहीं पड़ा तुम तो चौड़े हो के कह ही सकते हो की सब सही है. ऐसा है तो ऐसा तो चल ही रहा था हजारो सालो से एक को अपने मज़े मे पता ही नहीं है की उसकी जाति उसे क्या दे रही है और एक तरफ जीने के अधिकार ही छीन रखे है . बाकी छोड़ो इतना ही बता दो की तुम्हारे अन्दर ये बड़प्पन कहाँ से पैदा हो गया की हम छुआछूत को नहीं मानते। 

5  
आप अच्छे लेखो के साथ आते हैं लेकिन किसी एक राजनैतिक पार्टी की चाटुकारिता करते रह जाते हैं, जाति व्यवस्था तोड़ना चाहते हैं लेकिन नैतिकता भूल जाते हैं । मै सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि आपका कोई व्यक्तिगत फायदा तो नहीं आप बस एक राजनैतिक प्रचारक भर तो नहीं!


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance. 

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