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कुंठित नेतृत्व अपने समर्थकों का और समर्थक कुंठित नेतृत्व के गुलाम होते है।
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लोकनायक लोगों में नेतृत्व क्षमता, मनुष्यता के बीज बोते है समय समय पर बिना नफे नुकसान के अपने ही साथियों के साथ वैचारिक लड़ाइयाँ भी लड़नी पड़ती है । खुद की दृष्टि भले ही कितनी भी सही हो थोपने से हमेशा बचते हुए चलते है।
जबकि विकृत मानसिकता के लोग केवल और केवल कुंठित मानसिकता को ही बढ़ावा देते है, कट्टर होते है , नेतृत्व क्षमता विकसित करने की बजाय अवतार बनते है , ईश्वर बनते है, कुंठाओं को दूर करने की बजाय उन्हें कट्टर समर्थन में बदलते है। किसी व्यक्ति का सम्मान करने और कट्टर समर्थक होने में अंतर तो होता ही है, सामाजिक दर्शन , विचारक और मिथ्या की पहचान इतनी तो मुश्किल न थी।
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पहले नेतृत्व थे की सामूहिक चेतना को राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर ले गए, लोकतान्त्रिक मूल्यों को निरंतर सुधारों की ओर ले जाते रहे। अगर कोई लोकतांत्रिक चेतना को वापिस व्यक्ति तंत्र की चेतना की ओर मोड़ रहा हो तो वह व्यक्ति या ऐसी कोई संस्था सही कैसे हो सकते है ! खैर ये सवाल खुद से पूछने का ज्यादा है।
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मेरी राय मांगी जाए तो दलित राजनीति के नाम पर लोग अभी भी सही दिशा में नहीं है और जब तक इस दिशा को सही मानते रहेंगे खुद भी ठगे जाते रहेंगे न ही समाज की ही सही दिशा दे पाएंगे। विरोध की राजनीती से बेहतर है मानवीय मूल्यों के साथ अपने मुद्दों पर राजनीति की जाए, सही चेहरे चुनने की समझ पैदा की जाए। मेरा अभी भी यही कहना है की दलित नेतृत्व अभी तक नहीं आया है। दलित महिला के हाथ में सत्ता होना अलग बात है। तुक बंदी सतही चिंतन राजा चुन कर खुश होने के सिवा समाज को कोई दिशा नहीं दे सकता। तुक बंदी की कूद फांद में बौद्धिकता के नशे में फेसबुकिया सेलेब्रिटी बनना ही लक्ष्य है, मन खुश है तो अलग बात है।
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एक निरंकुश, सत्ता भोगी राजा को और क्या चाहिए जहां की जनता को उलझाने के लिए कुछ अलग से प्रयास भी नहीं करने पड़े। जहां की जनता भीड़ तो बनती है लेकिन अपने अधिकारों या बेहतर समाज के लिए नहीं।
यह बात आश्चर्यचकित ही करती है भारत में सत्ता का चरित्र तमाम कमजोरियों के बावजूद लोकतंत्र को मजबूत करने का ही ज्यादा रहा, भीड़ को सही दिशा में ले जाने का ही प्रयास किया। लेकिन नेतृत्व ही लगातार दिशा भृमित करने करने लगे या यूं कहिए समाज की कमजोरियों को अपने पक्ष में भुनाने लगे तो क्या करियेगा। लोगों को ऐसी सत्ता तो भायेगी ही भले ही उसका परिणाम कुछ भी हो, आखिर अपने ही जैसा व्यक्ति किसे पसन्द नहीं आता।
साथ के साथ जाति, धर्म, अंधविश्वासों से भरे समाज में केवल किसी को मूर्ख बोल कर, नफरत कर के विद्धता का सेलिब्रेशन तो किया जा सकता है लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी का इससे कोई लेना देना नहीं।
सत्ता को ऐसे लोगों की भीड़ भी खूब पसंद होती है।
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रातो रात किसी को नेता मान लिया जाना, पहले एक अवतार चुनना फिर उस अवतार के विरोध में एक नया अवतार चुन लेना इससे अलग भी कुछ होता आ रहा है क्या ? कोई आएगा और सारी समस्याएँ निबटा देगा यह कितना सही है, पहले कांग्रेस विरोध नए अवतार दे रहा था और अब मोदी विरोध और जेल जाना ही पैमाना रह गया है ?? दिल्ली से बाहर भारत नहीं है क्या ?
एक आदमी, एक नेता ,एक पार्टी सब कुछ बदल देगी हम कांग्रेस भी इसलिए चुनते है, मोदी को भी , केजरीवाल को भी और अब कन्हैया। लच्छेदार भाषणों और अवतारों से देश का भला होना होता तो अब तक कई बार हो गया होता।
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.