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Sanjiv Kumar Sharma
मनुष्य की विकास यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण चीज शिक्षा ही रही है| अनेक चुनौतियों से गुजरती, नए-नए पायदान चढ़ती, कभी आगे बढ़ती, कभी भटकती शिक्षा आज एक खास मुकाम पर पहुंची है| लेकिन आज भी बहुत बड़ी आबादी के लिए शिक्षा का मतलब सिर्फ कुछ तथ्यों को रट लेना या कुछ धनराशि कमा लेने का जुगाड़ कर लेना ही है| शिक्षा क्या है, इसका उद्देश्य क्या है, इसके तौर-तरीके क्या हैं इस बारे में नई सोच, नए प्रयोग और नई दृष्टि का नितांत अभाव है| इस कारण से शिक्षा से जुड़ी एक बहुत गंभीर समस्या पैदा होती है कि विद्यार्थियों को अनुशासित कैसे किया जाए| खास तौर पर बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को| धमकी, शारीरिक दंड और लालच को लम्बे समय से विद्यार्थियों को नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है बिना यह जाने और सोचे कि उसका मानस पर क्या प्रभाव पड़ता है और कैसे हम एक भ्रष्ट और हिंसक समाज के निर्माण में जाने-अनजाने योगदान दे रहे हैं|
सबसे पहली बात तो यह है कि जब शिक्षा को जीवन से काटा गया तभी उसमें हिंसा और जोर-जबरदस्ती की नींव पड़ गयी| बच्चे के लिए जीवन और शिक्षा अलग नहीं होते, दोनों साथ-साथ चलते हैं| अपने पर्यावरण को जानते-समझते, सीखते उसके मस्तिष्क का विकास होता है और उसके परिवार का कर्तव्य होता है कि ऐसा माहौल उपलब्ध कराए जहाँ वह सुरक्षा, सरलता और सहजता से चीजों को सीखे| इसमें कहीं भी हिंसा या जोर-जबरदस्ती के लिए कोई जगह नहीं है| लेकिन इसका मतलब यह नहीं है बच्चे को फूलों पर रखना है और उसे जीवन का सामना करने लायक ही नहीं छोड़ा जाए|
कम्युनिकेशन के सभी आयामों से बच्चे का परिचय जरूरी है जिसमें किसी खतरे के आने पर जोर से की गयी आवाजें भी शामिल हैं| कुत्ते, बिल्ली तक खतरे में अपने बच्चों को आगाह करते हैं तो बिजली के सॉकेट के पास जाते इंसानी बच्चे को भी तेज आवाजों का मतलब समझाना हिंसा नहीं है, न ही उसे आग के पास से हटाकर उसके रोने को धैर्यपूर्वक बर्दाश्त करना क्रूरता है| जरूरत इस बात है कि हम कोई अथॉरिटी पैदा नहीं करें जिसके सामने बच्चे को झुकना हो| हम बच्चे के साथ-साथ सीखते हैं और दोनों जीवन की गुत्थियाँ सुलझाते हुए आगे बढ़ते हैं| हमारे पास कुछ ऐसा नहीं है जो स्पेशल हो और हमें बच्चे को देना हो, उलटे हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना है कि हमारी कंडीशनिंग, भय, आदतें और ढर्रे कहीं उसमें ट्रान्सफर न हो जाएँ| हमारे पास बस कुछ तकनीकी जानकारी है जो हमें उसे उपयुक्त तरीके से समय-समय पर देते रहनी है|
अगर अभिभावक अपनी जिम्मेदारी को नहीं निभाते और बच्चे के अंदर समस्याएं घर करती रहें तो ऐसा रूप ले लेती हैं कि बड़ी कक्षा तक आते-आते अध्यापक को उन्हें सम्भालना ही मुश्किल हो जाता है और उसके पास एक ही विकल्प रहता है वह है शारीरिक दंड| विद्यार्थी को मार-पीट कर वह काबू कर लेता है लेकिन इस प्रक्रिया में शिक्षा कहीं पीछे छूट जाती है| लेकिन अगर वह शारीरिक दंड का प्रयोग न करे तो यह विद्यार्थी पूरी कक्षा में अराजकता फैला देते हैं और पढ़ना-पढ़ाना ही मुश्किल हो जाता है| इस समस्या को बड़ी बारीकी और धैर्य से समझना होगा| इसका वास्तविक हल तो इन परिस्थितियों का सामना कर रहे शिक्षक को अपनी समझ, ज्ञान, सहनशीलता और प्रेम से खोजना होगा; यहाँ इस संबंध में सिर्फ कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है|
हमारे ज्यादातर शिक्षक पढ़ाने के तरीकों, विद्यार्थी के मनोविज्ञान और इस क्षेत्र में किए जा रहे शोधों के बारे में अनभिज्ञ होते हैं| जीवनयापन के साधन के तौर पर वह अध्यापन को चुन लेते हैं, उनमें न तो शिक्षण की समझ होती है और न अपने काम के लिए पैशन| जैसे-तैसे बला टाल कर उनको अपनी नौकरी निभानी होती है उनसे किसी रचनात्मकता, नए प्रयोग और विद्यार्थी और शिक्षण से प्रेम जैसी चीजों की उम्मीद करना रेत से तेल निकलने की आशा करने जैसा है|
अगर हमारे देश में आमतौर पर व्याप्त शिक्षा प्रणाली पर भी नजर डाली जाए तो उसमें आज भी बाबा-आदम के ज़माने के तरीके ही आजमाए जा रहें हैं| रेडिओ से हम स्मार्ट एलसीडी टीवी तक पहुँच गए लेकिन पढाई के वही तरीके हैं, रटो और परीक्षा में उगल दो| बढ़िया उगल दिया तो पास, कितना सीखा, कितना जाना, कितना नया करने की प्रेरणा मिली वह सब भाड़ में| कहीं सूचनाओं को रटना शिक्षा है तो कहीं शिक्षक की चापलूसी, जुगाड़ और नकल सबसे बड़ी शिक्षा है| इन हालात में अगर किसी विद्यार्थी को पढ़ने में रूचि नहीं है तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है? इतने उबाऊ, घिसे-पिटे तरीकों से सिर्फ इंसान को कमाने की मशीन बनाने के लिए की जा रही पढ़ाई में सिर्फ औसत विद्यार्थी को ही रूचि हो सकती है| जो भी किसी तरह कि समस्या से ग्रस्त होगा या वाकई में पढ़ना चाहता होगा वह अगर पढ़ाई से भागे तो इसमें आश्चर्य कैसा?
विद्यार्थी सिर्फ कुछ घंटों के लिए अध्यापक के साथ रहता है, उससे ज्यादा समय वही अपने घर-परिवार के साथ बिताता है| अगर घर के सदस्य साथ न दें तो शिक्षक के लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है कि वह किस तरह विद्यार्थी को प्रेरित करे और सकारात्मकता से भर सही मार्ग पर लाए| लेकिन फिर भी वह कुछ उपायों पर विचार कर सकता है, जैसे :-
काउन्सलिंग – यह सब से प्रभावी तरीका है| इसके लिए विशेषज्ञ की जरूरत होती है लेकिन अगर विशेषज्ञ न हो तो शिक्षक खुद ही मनोविज्ञान, मानव व्यवहार और असामान्य मनोविज्ञान का अध्ययन करके उन बच्चों कि काउंसिलिंग करे| इसके लिए प्रतिदिन कुछ समय निश्चित करे जबकि वह समस्याग्रस्त बच्चों से बात करेगा| विद्यार्थी के ऐसे व्यवहार का कारण पता लगाना फिर उसका हल खोजना काउन्सलिंग का मूल उद्देश्य है|
संवाद – समस्या से पीड़ित और अनुशासनहीन बच्चों से संवाद टूट जाता है और वे सुनते ही नहीं इसलिए उनसे संवाद नहीं बन पाता| ऐसे बच्चों को अलग-अलग कई सारे अध्यापकों के साथ उनसे संवाद स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए|
खेल – ऐसे बच्चों को खेल में लगाना उपयोगी सिद्ध हो सकता है| उनकी दिलचस्पी का पता लगा कर उनको उस खेल में लगाना उनको अनुशासित करने में सहायक होता है|
योग और ध्यान – योग और ध्यान काफी लाभदायक हो सकता है|
जिम्मेदारी देना – सावधानी से ऐसे बच्चों को थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारी देना उनको अनुशासित करने में मददगार होता है| पढ़ाई के बाहर की जिम्मेदारी देना भी अच्छा प्रभाव डालता है|
विशेष प्रयोग – कुछ मनो-शारीरिक क्रियाएं इन बच्चो की ऊर्जा खर्च करने और फिर उनको शिक्षा देने में सहायक होती है| चीखने, नाचने, रस्साकसी, उछलने, कूदने, रस्सी कूदने, लटके हुए बैग पर घूंसे मारने वगैरह की प्रतियोगिता, अपनी पसंद का कुछ काम करने की प्रतियोगिता वगैरह|
घर-परिवार के सदस्यों से बात|
पढ़ाने के आधुनिक तरीकों का ज्ञान प्राप्त करना और फिर उस ढंग से पढ़ाने के कोशिश|
ग्रुप से टीम की प्रेरित करना – ऐसे विद्यार्थी अक्सर ग्रुप बना लेते हैं इसलिए उनकी ग्रुप से जुड़ी गतिविधियों पर नजर रखी जाए और उनको ग्रुप की भावना की बजाय टीम की भावना सिखाने की कोशिश कि जाए|
कुछ समय के लिए उन पर पढ़ाई का दवाब कम करके उनको दूसरी गतिविधियों में लगाना भी लाभकारी होता है|
ये सारे उपाय सिर्फ संकेत भर हैं| असली काम तो खुद अध्यापक को करना होगा जिसे इन बच्चों से स्नेह है और वह यह जानता है उनके इस तरह के व्यवहार का कुछ कारण है और उनको पढ़ाने का भी एक ख़ास तरीका है बस उस तरीके का पता लगाना है| जब एक स्पेशल एजुकेटर आक्रामक मानसिक विकलांग बच्चों को पढ़ा सकता है तो फिर अपने को शिक्षक कहने वाला इतनी आसानी से हार मान कर मारने-पीटने पर क्यों उतारू हो जाता है| ये कोई आसान काम नहीं लेकिन सिर्फ आसान काम ही किए जाते तो दुनिया में कुछ भी नया, खूबसूरत और बढ़िया नहीं होता|
An author, thinker, translator and a travel-enthusiastic visited almost all states of India in his wheelchair. He had polio paralysis of both the lower limbs at an early age and could not get into the formal system of education, ie schooling. On his own, he started with formal mainstream education at home, and appeared in few exams privately but soon realised about the inadequacy of traditional approach to education and started self-study in his way.
Sanjiv stayed in a room for more than 12 years and spent time in reading books, writing, translating and contemplating on vital issues of human life, society and religion. He has studied literature, philosophy, science, religion and psychology. He started writing during adolescent and continues to write till the date. He has written many articles, poems and stories which got published in various newspapers and magazines. With the area of social media, he also has turned into a prolific writer on the internet.
Good. Thank you Sanjiv ji.