Share on:
मान लीजिये गाय में आस्था रखने वाला मैं दुनिया का पहला इंसान हूँ , आस्था धार्मिक कारणों से जगी की इसमें ३३ करोड़ देवी देवता है, गोबर परमाणु हमले से बचायेगा आदि या फिर इसलिए जागी की गाय दूध देती है जो बच्चों बड़ो के लिए आवश्यक पोषक तत्व है , गोबर खाद के काम आता है और दूध बेच कर आर्थिक लाभ भी होता है इस विषय को अलग कर देते है . चाहे मेरी आस्था का जो भी कारण है जरुरी तो नहीं सभी उसी तरीके से सोचे . अब मै सबसे पहला काम करूँगा की दुनिया की सारी गायो के जिम्मेदारी मै अपने ऊपर ले लू , जो की सुनने में ही हास्यापद है, न तो ते काम मेरे अकेले के बस का है न ही बड़ी से बड़ी भीड़ के बस का . और न ही सारी दुनिया मेरी आस्था से इत्तेफाक रखती है भला कोई अपने घर की गाय मेरी आस्था के लिए मुझे क्यों देगा . इस तरह के प्रश्न भी उठ सकते की कल को तुम्हारी आस्था किसी और चीज में जाग गयी तो उस हिसाब से तो हर चीज पर तुम अपना कब्ज़ा बताने लगोगे ?
अब मुझे दूसरा तरीका अपनाना होगा जिस के पास भी गाय है उससे प्रार्थना करूँगा की गाय की देखभाल करे मारे न . अब सुनने वाला बेवकूफी समझ कर नकार दे , मासूमियत समझे या तरस खा कर मेरी आस्था का ख्याल कर ले ये उसका बड़प्पन , ये पूरी तरह से उसका निर्णय क्योंकि गाय से पहले मेरी आस्था मनष्य में भी रही ही होगी . जितना इतिहास मेरा गाय में आस्था रखने का है उतना ही पुराना इतिहास किसी मनुष्य का गाय में आस्था न रखने का भी होगा ही .
————————————————————————————–
अब करते है बात भीड़ की आस्था की भीड़ की आस्था अपने आप को बड़ा बलवान समझती है , ‘भय बिन प्रीत न हो गोपाला’ भीड़ की आस्था का मूल मंत्र है क्योंकि तुम्हारा कहना है की वो तुम्हे दिखाने के लिए करते है .
अब चूँकि आस्था भीड़ की है तो थोड़े दम लगा कर ही सबसे अपनी आस्था को मनवा लेने की जिद होती है , आस्था होती है या जिद होती है ये अभी समझ से परे है क्योंकि जिस धर्म की भी भीड़ है, आस्था है उस धर्म के हिसाब से तो व्यभिचार न करना भी आस्था है उसे शायद ही कोई मानता हो , आस्था का तब कोई पता नहीं रहता जब नशा करते है ,झूठ बोलते है , धोखा देते हो ,देवी मान कर पूजा करने वाली स्त्रियों को उनके अंगो के नाम ले ले कर गाली दी जाती है ,बंदिशे लगायी जाती है , बलात्कार किये जाते है , आस्था का तब भी कोई पता नहीं रहता जब भगवान का रूप कहे जाने वाले बच्चो को जिन्दा जला दिया जाता है . तब न कोई भीड़ बाहर निकलती है न कोई आस्था . आस्था बाहर निकलती है बस एक खास मकसद के लिए जिद के लिए चाहे उस जिद में कितनी भी जाने क्यों न चली जाये . इतनी सलेक्टिव आस्था क्यों, की दोगलापन भी शरमा जाये .
चलो जिद को मान भी लिया जाए, दोगलेपन को भी साइड कर देते है इतिहास में, हमारे ही धर्म ग्रंथो में लिखा है गाय का मांस खाना है या नहीं खाना है, उस बहस से भी अलग हो जाते है. तुम एक सीमा में सफल भी हो जाओ जोर जबर्दश्ती करके हिंसा कर के . लेकिन तब क्या होगा जब गल्फ देश, यूरोपियन देश ,चीन आदि देश भी जबर्दश्ती थोपी गयी आस्था, मानवीय हिंसा के विरोध में उतर आये और दिखा दिखा कर गाय मार कर खाने लगे , सारी हेकड़ी और आस्था धरी की धरी रह जाएगी .तुम्हारी कट्टरता ही उस गाय की दुश्मन बन जाएगी तब कौन जिम्मेदार होगा ?
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.