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किसी भी मीडिया चैनल की पिछले 10 सालों की कोई भी वीडियों सर्च कर लीजिए और बताइये कि कितनी बार इन्होंने किसानों को, मजदूरों को सही मूल्य या लाभ में न्याय पूर्ण हिस्सा देने की बात उठाई हो।

वह पल बता दीजिए जब इन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, लैंगिक, जातीय, धार्मिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर कोई सार्थक बहस आयोजित करी हो या सामाजिक, वैज्ञानिक चेतना को जागृत करते हुए कोई काम किया हो।

यह एलियन ने कौन सी गाय का दूध पिया,
कौन-सी सीढ़ी कौन से स्वर्ग को जाती है, कौन से नोट में कौन सी चिप लगी होती है, भारत-पाकिस्तान करने में जो समय लगाते है। करोड़ो का खर्च करते है, कई कई घण्टे प्रोग्राम करते है। वह सब किसलिए करते है?
वहीं देश की जरूरी घटनाओं को सेकेंड दो सेकेंड का स्क्रीन टाइम देकर गायब कर दिया जाता है। और अगर गायब नहीं कर सकते तो तोड़ मरोड़ने कर बदनाम कर दीजिए।

मुट्ठी भर लोग निर्धारित कर देते है कि कौन-सा मुद्दा जरूरी मुद्दा है कौन सा गैर जरूरी। दरअसल इनके जरूरी मुद्दों में सबसे अहम एजेंडा यहीं होता है कि कैसे भारत के आम आदमी की सोच को और संकुचित किया जाये, भारतीय समाज को और ज्यादा अवैज्ञानिकता की ओर धकेला जाए। मीडिया का मतलब केवल प्रतिक्रिया और ज्वलनशील मोड में ही रहना होता है या फिर मीडिया के कुछ अलग मायने भी होते होंगे।

क्यों न इस पर भी बात की जाये कि मीडिया के इनके दफ्तरों में कौन सी जाति के लोगों का कब्जा है, जातीय प्रतिनिधित्व कितना है। इनके ऑफिसों में क्यों नहीं बात होती कि समान काम के लिए समान वेतन होना चाहिए। क्यों महिला पुरषों के वेतन में भारी अंतर किया जाता है।

जो लोग नौकरी जाने के डर से अपने ही शोषण के खिलाफ आवाज न उठा सकते हो, साथ वालो के शोषण पर आवाज न उठा सकते हो या शोषण करने में सहयोग करते हो उन लोगों से वाकई पत्रकारिता के मूल्यों की उनके काम में निभाने की अपेक्षा की जा सकती है क्या?

जो मीडिया कॉरपोरेट के विज्ञापनों से चलती हो, सरकारों के विज्ञापनों से चलती हो। जो कॉरपोरेट, सरकार और ब्यूरोक्रेसी किसान-मजदूरों की लूट से चल रहे होते है। वह क्यों न मीडिया का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए न करेंगे।

जो मीडिया अपने लाभ के लिए इन सब पर निर्भर करता हो, जो लाभ के हिसाब से चलता हो। एंकरों पर उन्माद पैदा करने के लिए, सेफ्टी वॉल्व की तरह इस्तेमाल के लिए करोड़ो रुपये की सैलरी दी जाती हो। उस पर भी वह अपने आप को गरीब या समाज का चिंतक प्रस्तुत करते हो। उनसे किस प्रकार की सामाजिक ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है?

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में यह मीडिया 142वें स्थान पर आती है। अंदाजा लगाइए यह समाज को भ्रमित करने, सामाजिक भाईचारा तोड़ने, साम्प्रदायिक, युद्ध उन्माद पैदा करने, लोगों को बाजारू गुलामी की तरफ धकेलने में यह किस स्थान पर आती होगी।

सोशल मीडिया का बड़ा धड़ा इन्हीं कॉरपरेट कंपनियों में काम करता है, देश मे आग लगाने वाले इस सिस्टम में सहयोग करता है और अपना फेयर शेयर भी लेता हो, सुविधाओं शक्तियों का आनंद लेता हो उससे आप उम्मीद कर सकते है वह स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे तत्वों को समझता हो?
सुविधाओं के घेरे में रह कर, लूट में हिस्सा लेकर थोड़ा बहुत दान पुण्य कर लीजिए, थोड़ा बहुत सोशल मीडिया में सेंसेशन पैदा कर लीजिए हो गई क्रांति; महानता वाला फील भी ले लीजिए और क्या चाहिए समाज तो वैसे ही रहता है, लोग तो होते ही कीड़े मकोड़े है। कैरियर बनने चाहिए, अटेंशन मिलती रहनी चाहिए!

मीडिया अगर समाज को जागरूक करने की दिशा में नहीं है। मीडिया अगर लोगों के अधिकारों के साथ नहीं खड़ा है, मीडिया अगर किसान-मजदूरों की तकलीफों के साथ नहीं खड़ा है। वह सब मीडिया है ही नहीं भले ही उस मीडिया हाउस में कोई फन्ने खां काम करता हो।

चलते-चलते

भारत में आजादी के बाद ऐसा कोई आंदोलन आज तक नहीं हुआ है। मीडिया, शासन प्रशासन इस आंदोलन को अभी तक उसी तरह के आंदोलनो की तरह ले रहे है जो प्रायोजित होते रहे है। ढर्रे वाले रवैयों को अपनाया जा रहा है।
यह वह आंदोलन तो बिल्कुल नहीं है जिस पर मीडिया या सोशल मीडिया की चिल्ल पौ से फर्क पड़ने वाला हो या उसकी वजह से कोई गलत असर इस आंदोलन पर पड़ने वाला हो। उल्टा यह आंदोलन ऐसी बहुत चीजों को पचाने वाला है जो समाज में लोगों की आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल होती आई है। इस आंदोलन में किसान महिलाएं-पुरुष अपने बच्चों के साथ अपने घरों से दूर है। केवल इसी बात से अंदाजा लगा लीजिये की इस आंदोलन की तासीर क्या है, यह कितना गहरा और दूर तक है। सेंससेशन वाली कूद फांद से दूर रह सकते है तो कुछ समय रहने की कोशिश कीजिए।

सादर
धन्यवाद

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