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Sanjiv Kumar Sharma

प्रिय अज्ञात बेटी,
 
सबसे पहले तो तुम्हारा शुक्रिया कि तुमने मुझसे यह सब चर्चा की और मुझे इस योग्य समझा, मुझे यह सब सोचने-समझने का मौका मिला और जिन्दगी को जरा और नजदीक से देखने का अवसर प्राप्त हुआ| मैं शुरुआत में ही क्षमा मांग लेता हूँ कि आगे मेरी लिखी कोई बात तुमको बुरी लगे या गलत लगे तो मुझे माफ़ कर देना और भरोसा रखना कि मेरी भावना तुमको चोट पहुँचाने की कदापि नहीं है और मैं तुम्हारे प्रति पूरा सम्मान और स्नेह रखते हुए अपनी बात कह रहा हूँ|
 
सबसे पहली बात तो यह कि मुझे संदेह है कि मेरी बातों से तुम सहमत हो पाओगी, मेरी ज्यादातर बातों को सुनते ही तुम्हारा मन और मस्तिष्क उनके जवाब सोचने लगेगा और अपनी वर्तमान सोच से हिलने की बजाय उसी में टिके रहने के लिए कोशिश करेगा और उसे सही ठहराने के जतन करेगा| ऐसा तुम्हारे साथ नहीं हम सब के साथ होता है, बस अगर इस प्रक्रिया को देखा जाए तो फिर हम निरपेक्ष रूप से चीजों को समझने, जानने की दिशा में बढ़ सकते हैं|
 
मैं फिर दोहराऊंगा कि तुम्हारी उस व्यक्ति पर भयंकर मानसिक निर्भरता हो गयी है| आत्मीयता होना, नजदीकी होना, किसी का साथ पसंद होना अच्छी बातें हैं लेकिन मानसिक निर्भरता खतरनाक चीज है और ऐसा करके हम खुद अपने लिए मुसीबतें बुलाने लगते हैं| जीवन एक बहुत बड़ी चीज है, उसमे बहुत सारे रिश्ते, बहुत सारे लोग, बहुत सारे सुख-दुःख, बहुत सारे काम होते, अनेकों आयाम होते हैं, लेकिन हम अक्सर सब कुछ समेट कर एक ही आदमी से जोड़ लेते हैं| फिर हमारे सारे सुख-दुःख, चिंता-परेशानी, उत्थान-पतन, फायदा-नुकसान सब कुछ उस एक आदमी के साथ हमारे संबंधो पर टिक जाते हैं और हम एक ऐसे दलदल में फंस जाते हैं जिससे निकलने का जितना प्रयास करें उतने ही धंसते जाते हैं| हमारा पूरा जीवन ही उस व्यक्ति के साथ हमारे संबंधो पर टिक जाता है|
 
हम ऐसा क्यों करते हैं इसके बहुत सारे कारण हैं उनकी चर्चा यहाँ करने का अभी ओचित्य नहीं है बस ये समझ लो कि ऐसा हो जाने पर हमको खुद होश नहीं रहता हम क्या कर रहे हैं और हम इस हद तक चले जाते हैं कि बेरीढ़ हो कर यहाँ तक कहने लगते हैं कि वह मुझे मारे, मुझे डांटे, मुझ पर अत्याचार करे तब भी मुझे अच्छा लगता है| कई बार तो हम खुद ही ऐसे हालात बार-बार पैदा करने लगते हैं कि वह ऐसा करे| फिर हमारा अहम खुद को संतुष्ट करने के लिए तरह-तरह की धारणाएं गढ़ता है, मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, मैं उसका ध्यान रख सकती हूँ, मैं ही उसे समझती हूँ, मैं ही उसके लायक हूँ, मैं… मैं…, ऐसा करते हुए मन को पीड़ा के बीच भी सुकून मिलता है कि देखो मैं कितना सही हूँ, वो सामने वाला ही ऐसा है जो मुझे नहीं समझता|
 
यदि हम इस मानसिक निर्भरता का खेल देखना चाहते हैं और ईमानदार हैं तो एक छोटा सा प्रयोग करके देखें, हम यह सोच कर देखें कि अगर वह व्यक्ति अभी हमारी जिन्दगी से चला जाए तो हम पर क्या प्रभाव होगा? कहाँ से हम खाली हो जायेंगे, कहाँ से हमारे भीतर फंसे हुए हुक खिचने से चोटें उभर आएंगी| तुरंत सब कुछ साफ़ हो जाएगा| एक और बात सोच कर देख सकते हैं कि अगर वाकई मैं उस व्यक्ति से प्रेम करती/करता हूँ तो उसे उसके ढंग से क्यों जीने नहीं देती? मैं क्यों चाहती हूँ कि वह वैसे जिए जैसे मैं चाहती हूँ? प्रेम तो यही चाहता है न कि उसका प्रेम पात्र प्रसन्न रहे? फिर इतनी मांग, कब्जा, दबाव क्यों? अगर कोई गलती भी कर रहा है तो आप उसे सिर्फ बता ही तो सकते हैं, उसके दिमाग के अंदर घुस कर स्नायु तन्त्र को नियंत्रित नहीं कर सकते? अरे इस अखिल विश्व में रेत कण से भी कम हैसियत वाले हम खुद का जीवन देख लें उतना ही बहुत है दूसरे के जीवन को संवारने का अहंकार क्यों पालते हैं!  
 
इस तरह के जटिल सम्बन्ध हमारी पूरी मानसिक ऊर्जा खा जाते है, उसके बाद हमारे पास इतनी मानसिक ताकत बचती ही नहीं कि हम कुछ कर सकें| कृपया इसे व्यक्तिगत नहीं लेना, ये बात मैं बहुत स्नेह से कह रहा हूँ कि मुझे नहीं लगता इस रिश्ते से उलझते हुए कोई अपनी पढ़ाई, काम वगैरह पर पूरी ईमानदारी पर ध्यान दे पाएगा| तुमने कानून पढ़ा, बार कौसिल में भी आ गयी लेकिन अभी तुम शानदार अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू नहीं लिख-बोल सकती, जो भारत में कानून के लिए अनिवार्य है| संविधान, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कानून, धार्मिक-आदिवासी-राज्य क़ानून वगैरह का तुम्हे ज्ञान तो है लेकिन ऐसा नहीं कि उसके बारे में लिख सको, चर्चा कर सको, लोगों को जागरूक कर सको, सलाह दे सको| समाज, धर्म और कानून के जटिल सम्बन्धों पर पर तुमने कितने मौलिक आर्टिकल लिखे? क़ानून की विसंगतियों की और ध्यान दिलाती कितनी फेसबुक पोस्ट खुद लिखी? भारत में कानून में सुधार की जागरूकता के लिए तुमने अभी तक क्या किया? कानूनी जटिलताओं को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने के अभी तक कितने प्रयास किए?
 
यह सब इसलिए हुआ क्योंकि तुम्हारी जबरदस्त मानसिक ऊर्जा का ज्यादातर भाग करवाचौथ, सेवा, पति, शादी, बच्चे, प्यार, मेहँदी, साड़ी, सिंदूर, कर्मकांड, पति मान कर सेक्स किया तो पूजा, पति नहीं माना तो पाप (जैसे छोटे बच्चे जमीन पर घेरे बना कर खेलते हैं- इस गोले में आया तो विन वरना आउट), वो ऐसा क्यों कर रहा, वो वैसा क्यों नहीं कर रहा वगैरह में ही खत्म हो गयी| सिर्फ यही नहीं, न ठीक से सोना, न ठीक से जागना, न अपनी सेहत का ध्यान रखना, न कोई शारीरिक खेल, न योग या व्यायाम करना| मैं यह नहीं कह रहा कि पढ़ाई में तुमने मेहनत नहीं की, मुझे पता है तुम काफी मेहनत से पढ़ती हो लेकिन ज्यादातर मानसिक ऊर्जा जब सम्बन्धो के उखाड़-पछाड़ में लग रही तो कुछ रचनात्मक करना बड़ा मुश्किल हो जाता है|
 
अब आते हैं दूसरे पहलू की ओर, किसी सम्बन्ध को सिर्फ इसलिए स्वीकार लेना कि- माता-पिता ने कहा है या उसकी हड्डियों के ऊपर जो मांस और खाल चढ़े है वह ऐसा है कि देखने में अच्छा लगता है, उसने जिस गर्भाशय से जन्म लिया है उसे लोग किसी ख़ास जाति का मानते हैं या वह कुछ ख़ास रकम हर महीने कमाता है- भी निहायत मूर्खतापूर्ण चुनाव है| शायद उसमे हम भोग और सामाजिक सुरक्षा पाने के कारण खुश भी रह लें लेकिन जीवंतता कभी नहीं पा सकते|
 
तो फिर क्या किया जाए? किया सिर्फ ये जाए कि खुद से प्रेम करें, खुद से प्रेम किए बगैर हम दुनिया में किसी से प्रेम कर ही नहीं सकते, भले ही हम कितने भी दावे कर लें या अपनी कलाई पर किसी का नाम लिख कर मर जाएँ| वह प्रेम नहीं है, नहीं है, नहीं है! और खुद से प्रेम करने की क्या निशानी है? सबसे पहली निशानी तो ये कि हम शादी, ब्याह, मेहँदी, साड़ी, पति, प्रेमी, घरवाले वाले सब छोड़ कर अपने को आत्मनिर्भर बनाएं| न सिर्फ अपने पैरों पर खड़े हों बल्कि यह भी देखे कि कहीं मैं मानसिक रूप से किसी की दया पर तो निर्भर नहीं हूँ?
 
फिर उस ढंग का एक स्पेस क्रिएट करें जहाँ हम रहना चाहते हैं, समाज के प्रति, अपने प्रति, परिवार के प्रति जो मानवीय जिम्मेदारी है उनको पूरा करने लायक बनें, उसके बाद हम अपने संबंधो को देखें और हमें लगता है कि हम को शादी करनी चाहिए तो शादी कर लें, हमको लगता है नहीं करनी चाहिए तो नहीं करें; दोनों के अपने-अपने कुछ पहलू हैं उनको भली-भांति देख कर निर्णय ले लें| लेकिन यह सब हम बिना किसी स्वनिर्मित प्रतिरोध और संघर्ष के करें| जीवन बहुत छोटा है और हर कदम पर चुनोतियाँ हैं इसलिए कम से कम खुद तो अपने लिए मुसीबतें न खड़ी करें| आराम से कोई रिश्ता चलता है तो ठीक, साफ़ नजर आ जाए कि नहीं चलना है तो उसे छोड़ें और उस रिश्ते के छूटने से होने वाले दर्द को जिन्दगी का पाठ समझते हुए खुले ह्रदय से स्वीकारें और आगे बढ़ें| ये भी याद रखें कि सब को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की खोज होती है लेकिन यदि यही खोज हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाए तो फिर हमारे संकटों को कोई भी नहीं टाल सकता, हमारा स्वनिर्मित भगवान भी नहीं|
 
मैंने अपनी सारी बात कह दी है, अब इस पर चर्चा करने को मेरे पास कुछ नहीं है| अगर तुम्हें कोई बात सही लगे तो देखना कि क्या तुम उसे जीवन में उतार सकती हो यदि नहीं लगे तो बकवास समझ कर भूल जाना| तुम इन बातों को स्वीकारो या अस्वीकारो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगी|
 
मेरा आशीर्वाद है कि सजग बनो, सशक्त बनो और सोल्लास जीवन व्यतीत करो|
       
तुम्हारा

अज्ञात


An author, thinker, translator and a travel-enthusiastic visited almost all states of India in his wheelchair. He had polio paralysis of both the lower limbs at an early age and could not get into the formal system of education, ie schooling. On his own, he started with formal mainstream education at home, and appeared in few exams privately but soon realised about the inadequacy of traditional approach to education and started self-study in his way.

Sanjiv stayed in a room for more than 12 years and spent time in reading books, writing, translating and contemplating on vital issues of human life, society and religion. He has studied literature, philosophy, science, religion and psychology. He started writing during adolescent and continues to write till the date. He has written many articles, poems and stories which got published in various newspapers and magazines. With the area of social media, he also has turned into a prolific writer on the internet.

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