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फेसबुक पर लिखने वाले जिंदा रहते है।
व्हाट्सएप्प पर खून खौलाने वाले जिंदा रहते है।
बदला लेने की बात कहने वाले राजनेता जिंदा रहते है।
टीवी बक्सों में तू तू मैं मैं करने वाले भी जिंदा रहते है।
ब्यूरोक्रेसी ज़िंदा रहती है।
पूंजीपति जिंदा रहते है।
मरते है रोजी रोटी के लिए देश के भीतर किसान और देश की सीमा पर गए किसानों के जवान।

जिंदा रहिए जिंदा रहना बुरा नहीं है, 
लेकिन अपनी मानसिक उत्तेजनाओं की मौज का शिकार अपने ही भाइयों को और मत बनाइए।


कैसे?  यह अपने आप से पूछिए।


Nishant Rana 
Social thinker, writer and journalist. 
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance. 

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