Share on:
भारत में अधिकांश बंद राजनैतिक पार्टियों द्वारा दूसरी पार्टियों के विरोध में लगाए जाते रहे है या फिर व्यपारियों द्वारा अपने हित को साधने के लिए। व्यपारी वर्ग भले ही जीवन भर एक ही राजनैतिक पार्टी को वोट देता रहे लेकिन सरकारी नीतियों में अपने हितों में जरा भी चूक देखता है तो हड़ताल या बंद के द्वारा अपनी बात रखता है।
उस भारत बंद का मतलब होता है केवल शहर बंद गांवों में इस तरह की बंद की खबरे भी पहुँच जाए तो वह बहुत है। गांवों में राजनैतिक पार्टियों या व्यपारियों के आह्वान पर बंद नहीं होते आए है।
यहां व्यापारी वर्ग से मतलब उत्पादन करने वाले वर्ग से नहीं है। किसान-मजदूर वर्ग उत्पादन से सीधा जुड़ा है लेकिन इन्हें व्यापारी ही नहीं माना जाता रहा क्योंकि हमारे यहां किसान प्राकृतिक संसाधन, घर , सोंझ , पशु धन, खाने पीने के मामले में बहुत समर्द्ध हो सकता है लेकिन रुपए वाले बाजार में उसे लगातार कमजोर और लूटा ही गया है। और हमारे समाज के अनुसार व्यापारी वह होता है जो लोगों को मूर्ख बना सके, शोषण कर सके तिगड़म बाजी कर के रुपए बना सके।
इस तरह के शोषण एवं लूट के लिए हमारे समाज बाकायदा प्रशासन वर्ग और पूंजीपति वर्ग का मिला जुला सिस्टम दिखाई पड़ता है। खास जाति वर्गों के लिए इस सिस्टम में एंट्री जल्दी है बाकी जातियों के लिए वह थोड़ी दुश्वर है। (फिलहाल लेख का विषय यह नहीं है।) सिस्टम के अंदर कोई भी हो अंततः वह उस तंत्र के हिसाब से ही कार्य करता है, जिसके लिए तंत्र बनाया गया है। इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि फांसी लगाने वाला जल्लाद कितना भी अच्छे मन का व्यक्ति लेकिन उसे उस सिस्टम का हिस्सा रहना है तो उसे अपनी संवेदंशीलता लगातार खत्म करते हुए तंत्र के कहने पर बिना सोचे समझे तख्ते पर आए व्यक्ति को फांसी देनी ही देनी है।
किसान और मजदूर यह सब नहीं करता वह बाजार को उत्पाद बेचते हुए भी हाथ जोड़ता है और खरीदते हुए भी शोषण ही करवाता है। चूंकि वह लगातार उत्पादन करता है। बाजार जाता है इसलिए उसके शोषण की गति कम दिखाई देती है जबकि व्यापारी वर्ग तेजी से फलता फूलता जाता है।
दूसरी हड़ताल अधिकतर सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपने वेतन-भत्ते, सुविधाओं आदि को बढाने के लिए की जाती है।
सरकारी नौकरी हमारे यहां कैरियर का ही पर्याय हो चुकी है क्योंकि किसान-मजदूर लोगों की सेवा नीति निर्धारण के लिए, कामों के प्रबंधन के लिए रखा जाता है उनके पास अनन्तः कुछ नहीं बचता लेकिन जिन्हें उन्हीं के उत्पादों से निकली तनख्वाह पर रखा जाता है वह उसी किसान मजदूर वर्ग को गांव के आदमी को कीड़ा मकोड़ा समझते है। एक अदना सा कर्मचारी भी किसान को गरियाने एवं शोषण करने के अधिकार रखता है। तनख्वाह के मामले में भी वह कंपनी के मुख्य मालिक (किसान-मजदूर) वर्ग से तुलनात्मक रूप से कई गुना का अंतर है। सुविधाओं में कई गुना का अंतर है। जबकि जिनके लिए इन्हें मुख्यत: काम पर रखा जाता है वह सब लगातार उत्पादन एवं लाभ के मामले में माइनस की स्थिति है।
चलते-चलते :
इस तरह के कुतर्क लगातार दिए जाते है कि देश की अर्थव्यस्था पूंजीपतियों , व्यापारी वर्ग के टैक्स आदि से चलती है। तुर्रा यह है कि देश को यहीं चला रहे है।
गांव बंद का समर्थन सबसे अधिक इन्ही कुतर्कों की वजह से है यदि देश की अर्थव्यस्था की इनके टैक्स से चल रही है तब इनका पूरा का पूरा व्यपार ही गांवों की लूट पर खड़ा है उसका क्या ! किसान मजदूर वर्ग भी अपनी सभी खरीद पर डायरेक्ट नहीं तो इनडायरेक्ट टैक्स चुकाता ही है। व्यपारी वर्ग अपने चुकाने वाले टैक्स को भी इन्हीं लोगों से अपने लाभ रूप में वसूलता है जबकि किसान को ऐसी कोई सुविधा नहीं है।
लूटतंत्र में शामिल लोग मोटी चमड़ी के लोग है अपने पूर्वाग्रहों में मस्त रहते है। उनके लिए लोगों की जागरूकता का मतलब है कि जिन राजनैतिक पार्टियों को लाभ के लिए वह वोट देते है लोग भी जाग्रत हो कर उनकी इसी बात का अनुकरण करे एवं उन्ही नीतियों का समर्थन करे जिनसे केवल उन्हें लाभ पहुँचता हो। कभी वह इस पक्ष के बारे मे सोच ही नहीं सकते कि जो निर्माता है वह सबसे अधिक लाभ की स्थिति में होना चाहिए।
गांव बंद इसलिए ही होने चाहिए ताकि यह स्थिति साफ हो कि आप गांवों की वजह से है न कि गांव आपके वजह से।
शहरी चकाचौंध में मुंदी हुई आंखों को खोलने का और कोई रास्ता भी नहीं है। भूखें मरने की चिंता न कीजियेगा किसान आपको अपनी न्यूनतम संवेदनशीलता में भी भूखा नहीं मरने देगा।
Nishant Rana
Social thinker, writer and journalist.
An engineering graduate; devoted to the perpetual process of learning and exploring through various ventures implementing his understanding on social, economical, educational, rural-journalism and local governance.